Saturday 10 August 2013

मेरी दृष्टि में मेरी कहानियां...

(एक सज्जन छत्तीसगढ़ में कहानी लेखन पर पीएचडी कर रहे हैं, उसमें मेरी छत्तीसगढ़ी कहानियों का संकलन * ढेंकी * को भी सम्मिलित किया गया है। उन्होंने मुझसे मेरे अपने विचार भी देने के लिए कहा। यह विचार उनके कहने पर- )

अपनी ही कहानियों पर कुछ कहना आसान काम नहीं है, लेकिन एक लेखक को एक समीक्षक भी होना चाहिए, इस नाते उसे अपनी कृतियों पर भी उसी बेबाकी के साथ लिखना चाहिए, जैसा कि अन्य किसी की कृतियों के साथ उसका नजरिया होता है।
अपनी कहानियों के संबंध में कुछ कहने से पहले मैं इन्हें दो अलग-अलग कालखण्डों में बांटना चाहूंगा। पहला कालखण्ड वह है, जब मैंने युवावस्था में प्रवेश किया था। 25 से 30 वर्ष की अवस्था, जिन दिनों छत्तीसगढ़ी मासिक पत्रिका 'मयारु माटीÓ का प्रकाशन और संपादन मेरे द्वारा किया जा रहा था। इसके बाद दूसरा कालखण्ड वह है जब मैं आध्यात्मिक साधना काल को पूर्ण कर वापस सामान्य जीवन की ओर बढ़ रहा था, यह 40 से 50 वर्ष के बीच की बात होगी। इन्हीं दो कालखण्डों में मेरे द्वारा कहानियों का लेखन किया गया है। बीच के समय में या वर्तमान में अलग-अलग धाराओं में लेखन कार्य होता रहा है, कहानियों को छोड़कर।
पहले कालखण्ड में लिखी गई कहानियों में युवावस्था की अल्हड़ता और मनोभाओं को अभिव्यक्त करती कहानियां हैं, जो उस समय प्रकाशित हो रही पत्रिका 'मयारु माटीÓ आदि में प्रकाशित हुई हैं, इनमें 'अइलाय फूल फेर डोंहड़ी होगेÓ जैसी कहानियां हैं। मजेदार बात यह है कि उस दौर में लिखी गई कहानियों को मैंने अपने एकमात्र कहानी संकलन 'ढेंकीÓ में स्थान ही नहीं दिया है। इनके लिए यह कहना ज्यादा अच्छा होगा कि ये कहानियां मेरे संकलन में शामिल होने के मापदण्ड पर स्तरीय नहीं थीं।
दूसरे दौर की कहानियों में वे सारी कहानियां हैं, जिन्हें मैंने 'ढेंकीÓ में संकलित किया है। 'ढेंकीÓ के प्रकाशन के पश्चात 'मन के सुखÓ जैसी एक या दो और कहानी लिखी गई है, जो स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं थीं।
यहां यह बताना आवश्यक है कि कहानी लेखन में मिल रही आशातीत सफलता और प्रशंसा के बावजूद मैं कहानी लेखन को छोड़कर गीत लेखन की ओर क्यों बढ़ गया। दरअसल मैं जिन लोगों के लिए कहानी लिख रहा था, उनकी पहुंच से मेरी कहानियां काफी दूर थीं। मैं दबे-कुचले, शोषित-पीडि़त लोगों की पीड़ा को व्यक्त कर रहा था, जन-समस्याओं को अपनी लेखनी के माध्यम से लिख रहा था, और सबसे बड़ी बात यह कि छत्तीसगढ़ के मूल निवासियों की पीड़ा, शोषण और अस्मिता को अभिव्यक्ति दे रहा था। लेकिन इन्हें कुछ वर्ग विशेष के लोग ही पढ़ पा रहे थे। मैंने गहन चिंतन-मनन किया और जिन लोगों के लिए अपनी लेखनी चला रहा था, उन तक अपनी बात पहुंचाने की गरज से सरल भाषा में गीत लिखने लगा और कवि सम्मेलनों में जाने लगा। इसीलिए मेरे गीतों में भी वही बातें आने लगीं जो मेरी कहानियों में थी।
 उदाहरण देना चाहूंगा। 'ढेंकीÓ कहानी संकलन में एक कहानी है- 'बलवा जुलुमÓ यह बस्तर की नक्सल समस्या पर आधारित है। यह कहानी यहां की कई पत्र-पत्रिकाओं में भी प्रकाशित हुई थी, फिर भी मुझे संतुष्टि नहीं मिल रही थी। आम जन जो इस पीड़ा को भोग रहे थे उन लोगों तक यह बात नहीं पहुंच पा रही थी। आगे चलकर मैंने इसी विषय पर एक गीत लिखा-
बस्तर की सुरकंठी मैना, नक्सल भाषा सीख गई है
घोटुल सारे उजड़ रहे हैं, इंद्रावती भी रीत गई है
सल्फी-लांदा अब नहीं सुहाते, उत्सव के मुहानों पर
चलो आज फिर दीप जला दें, श्रम के सभी ठिकानों पर
नीर बहाते कृषक झोपड़े, और खेतों के मचानों पर...
यह एक उदाहरण है, अपनी बातों को आम जन तक पहुंचाने के लिए कहानी से गीत विधा की ओर आने के लिए। ऐसे बहुत से गीत हैं, जो मेरी कहानियों के विषय पर ही आधारित हैं, और मेरी ये तमाम कहानियां मेरे आस-पास के दृश्यों और लोगों के जीवन पर आधारित हैं, जिन्हें मैंने देखा, समझा और अपने नजरिये से लिखा। मेरी सभी कहानियां वास्तविक दृश्यों पर आधारित हैं। इनमें एक-दो तो ऐसी हैं, जिनमें मैंने पात्रों के नाम को भी उसके असली रूप में या उससे मिलते-जुलते रखा है।
एक कहानी है- 'एंहवातीÓ इसमें विधवा विवाह के संबंध में दलील दी गई है। मैंने कहानी के माध्यम से कहा है कि जिस प्रकार एक पुरुष के विधुर हो जाने पर उसकी साली को यह कहकर उसके साथ ब्याह दिया जाता है, कि बहन के बच्चों को वह अपना समझ कर सम्हालेगी। क्या इसी तरह एक स्त्री के विधवा हो जाने पर उसके हमउम्र देवर के साथ उसकी दूसरी शादी नहीं की जा सकती? मैंने इस कहानी के पात्र को हमारे शहर रायपुर में चरितार्थ किया है। यह कहानी सत्य घटना पर आधारित है।
इसी तरह एक कहानी है- 'धरमिन दाईÓ यह कहानी रायपुर की प्रसिद्ध दानदाता, जिन्हें नगरमाता की उपाधि से सम्मानित किया गया था, उस बिन्नीबाई सोनकर के जीवन से प्रेरित है। एक और कहानी 'मन के सुखÓ यह कहानी 'ढेंकीÓ संकलन में संग्रहित नहीं है, लेकिन कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी है। यह एक ऐसी लड़की के जीवन पर आधारित है, जो पहले रेजा का काम करती थी, फिर धीरे से एक चिकित्सालय में झाड़ू-पोंछा लगाने का काम करने लगी, और वहां के लोगों से प्रोत्साहन पाकर धीरे-धीरे नर्स और फिर एक दिन डॉक्टर बन गई। आज वह अपने स्वयं की डिस्पेंसरी चलाती है। हम लोगों ने शासन से इन्हें नारी शक्ति सम्मान देने का अनुरोध किया है, ताकि अन्य लोगों को इनके जीवन से प्रेरणा मिल सके।
वैसे तो 'ढेंकीÓ कहानी संकलन में कुल 12 कहानियां हैं, जिनमें- शीर्षक कहानी- ढेंकी, गुरु बनावौ जान के, धरम युद्ध, धरमिन दाई, नवा रद्दा, एंहवाती, डंगचगहा, अमरबेल, बड़े आदमी, बेटी के बिदा, चिन्हारी तथा बलवा जुलुम संग्रहित हैं। इन सभी कहानियों में शीर्षक कहानी 'ढेंकीÓ को सबसे ज्यादा सराहा गया है। यह अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई है, और सबसे बड़ी बात यह है कि आकाशवाणी रायपुर द्वारा  प्रसारित होने वाले कार्यक्रम 'मोर भुइयांÓ के अंतर्गत इसे अनेक बार प्रसारित किया गया है। इस कार्यक्रम को पिछले 16 वर्षों से देख रहे उद्घोषक श्री श्याम वर्मा इसके संबंध में कहते हैं कि जब कभी मुझे इस कार्यक्रम में प्रसारण के लिए अच्छी कहानी नहीं मिलती तो मैं 'ढेंकीÓ का पुन: प्रसारण कर देता हूं... अभी तक करीब 15-16 बार यह इस केन्द्र से प्रसारित हो चुकी है, जो कि एक रिकार्ड है।
'ढेंकीÓ का हिन्दी में अनुवाद भी किया गया है। दुर्ग शहर के प्रसिद्ध ब्लॅागर और साहित्यकार श्री संजीव तिवारी ने इसे हिन्दी में अनुवाद किया है, जिसे प्रसिद्ध साहित्यकार एवं पत्रकार श्री गिरीश पंकज जी ने अपनी पत्रिका 'सद्भावना दर्पणÓ के मार्च 2013 अंक में प्रकाशित किया है। इस कहानी को श्री नंद किशोर तिवारी के संपादन में प्रकाशित होने वाली पत्रिका छत्तीसगढ़ी 'लोकाक्षरÓ के पचासवें अंक में छत्तीसगढ़ी की विशेष कहानियों की श्रेणी में शामिल कर प्रकाशित किया गया है।
हिन्दी साहित्य में पं. चंद्रधर शर्मा 'गुलेरीÓ जी को जिस प्रकार केवल एक ही कहानी 'उसने कहा थाÓ के माध्यम से जाना जाता है, मुझे लगता है कि शायद 'ढेंकीÓ के माध्यम से छत्तीसगढ़ी साहित्य जगत में मुझे भी इसी तरह याद किया जाता रहेगा।
यह बात अलग है कि मैं व्यक्तिगत रूप से अपनी कहानियों में  'ढेंकीÓ से ज्यादा 'अमरबेलÓ नामक कहानी को पसंद करता हूं। 'अमरबेलÓ में छत्तीसगढ़ में अन्य प्रदेश के लोग जिस प्रकार आकर बसते जा रहे हैं, और यहां सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक प्रदूषण फैला रहे हैं। यहां के मूल निवासियों की अस्मिता को नेस्तनाबूद करने पर तुले हुए हैं उसे अभिव्यक्त किया गया है। 'अमरबेलÓ जड़ विहीन उस बाहरी व्यक्ति का प्रतीक है, जो दूसरे पेड़ पर आश्रय पाकर उस पेड़ को ही समाप्त कर देता है। उस पेड़ की रस चूसकर स्वयं तो हरा-भरा होता जाता है, अपना विस्तार करता जाता है, लेकिन अपने आश्रयदाता पेड़ को पूरी तरह से समाप्त कर देता है।
आज के छत्तीसगढ़ की यह वास्तविकता है। मैं व्यक्तिगत रूप से इस सिद्धांत का वाहक हूं कि जो व्यक्ति जहां का निवासी है, उसे वहीं समृद्ध किया जाय, दूसरे लोगों के अधिकारों पर न भेजा जाये। राष्ट्रीयता का मापदण्ड क्षेत्रीय उपेक्षा कभी भी नहीं हो सकता। लेकिन यह इस देश का दुर्भाग्य है कि यहां राष्ट्रीयता के नाम पर लगातार क्षेत्रीय उपेक्षा का खेल खेला जा रहा है। केवल छत्तीसगढ़ में नहीं अपितु हर उस प्रदेश में जहां के लोग शिक्षा के मापदण्ड पर अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा पिछड़े हुए हैं।
'अमरबेलÓ की ही तरह 'धरमयुद्धÓ में भी कुछ इसी तरह के मुद्दे उठाये गये हैं। जबकि 'चिन्हारीÓ में यहां की मूल संस्कृति को उद्घृत करने का प्रयास किया गया है। मैं व्यक्तिगत रूप से यहां के सांस्कृतिक-इतिहास लेखकों से काफी नाराज हूं। यहां की संस्कृति को उसके मूल रूप में लिखने के बजाय अन्य प्रदेश से आये हुए ग्रंथों और संस्कृतियों के साथ घालमेल मेल कर लिखा गया गया है, जिसे किसी भी रूप में सही नहीं कहा जा सकता। इस विषय पर मेरे अनेक लेख छपे हैं। एक किताब भी  'आखर अंजोरÓ के नाम से प्रकाशित हुई है। मेरा मानना है कि यहां की संस्कृति को तमाम ग्रंथों से अलग हटाकर यहां की परंपरा के मूल रूप में लिखा जाना चाहिए।
एक छोटा सा उदाहरण देना चाहूंगा। जैसे चातुर्मास की व्यवस्था है। अब मैं यह कहता हूं कि यह व्यवस्था छत्तीसगढ़ की संस्कृति में लागू नहीं होती। इस व्यवस्था के अनुसार इन चार महीनों में किसी भी तरह के मांगलिक कार्य प्रतिबंधित होते हैं। जबकि छत्तीसगढ़ की संस्कृति में देवउठनी से पहले कार्तिक अमावस्या को शिव-पार्वती के विवाह का पर्व गौरा-गौरी के रूप में मनाया जाता है। यहां जब भगवान की शादी ही देवउठनी से पहले हो जाती है, तो फिर इस बात को कैसे स्वीकार किया जा सकता है कि ये चार महीने किसी भी मांगलिक कार्य के लिए प्रतिबंधित होते हैं? ऐसे बहुत से उदाहरण हैं, जो इस बात को स्पष्ट करते हैं कि यहां के सांस्कृतिक इतिहास को फिर से लिखा जाना चाहिए। यहां के मूल निवासियों की परंपरा के अनुसार न कि बाहर से आये हुए ग्रंथों के अनुसार।
मेरी एक कहानी 'गुरु बनावौ जान केÓ भी कुछ इसी तरह की बातों को ध्यान में रखकर लिखी गई है। बाकी कहानियां सामाजिक मुद्दों पर हंै, जो आमतौर पर सभी जगह लिखी जाती हैं।
मुझे लगता है कि इन कहानियों में मैंने अलग-अलग मुद्दों में अपना दृष्टिकोण रखा है, और उसके अनुरूप लोगों को संदेश देने का प्रयास किया है। भाषा और कथ्य के मामले में ये बहुत अच्छा नहीं, तो कम भी नहीं हैं। शायद आज यदि मैं कहानी लिखूं तो भाषा और कथ्य में निखार दिखाई दे। लेकिन अब कहानी लेखन के प्रति मेरे मन में अरुचि पैदा हो गई है। मैं अपनी लेखनी को आम जनता तक पहुंचाना चाहता हूं, और मुझे लगता है कि गीत विधा इसमें ज्यादा सक्षम है।
यहां एक बात बताना चाहूंगा कि मेरी प्रारंभिक कहानियां सुशील वर्मा के नाम से प्रकाशित हुई हैं और बाद की कहानियां सुशील भोले के नाम से। दरअसल मैं आध्यात्मिक साधना के पूर्व अपना नाम सुशील वर्मा लिखता था, लेकिन आध्यात्मिक दीक्षा के पश्चात गुरु आदेश पर सुशील भोले लिखने लगा। सुशील से भोले बनने की यह प्रक्रिया मेरी कहानियों में भी स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। प्रारंभिक रचनाएं जहां हल्के-फुल्के विषयों और शैली में हैं, वहीं बाद की रचनाएं एक सिद्धांत और उद्देश्य को सामने रखकर लिखी गई हैं। यह बात केवल कहानियों में ही नहीं अपितु मेरे गीत और लेखों में भी दिखाई देती हैं। मैंने यहां से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्रों में कालम भी लिखे हैं, उनमें भी ये बातें देखी जा सकती हैं।

सुशील भोले
संपर्क : 41-191, डॉ. बघेल गली,
संजय नगर (टिकरापारा), रायपुर (छ.ग.)
मोबा. नं. 098269 92811
ईमेल -sushilbhole2@gmail.com
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