Monday 28 October 2013

देखे सपना धुआं होगे...


(1 नवंबर को छत्तीसगढ़ राज्य का 13 वां स्थापना दिवस है। हम लोग बचपन से राज्य आन्दोलन के साथ ही साथ यहां की भाषा, साहित्य, संस्कृति और संपूर्ण अस्मिता के लिए कार्यरत थे। लेकिन अब लग रहा है कि हम लोगों का आन्दोलन अभी भी अधूरा है। कहने के लिए भोगोलिक तौर पर राज्य का निर्माण तो हो गया है, लेकिन जिन उद्देश्यों को लेकर यह आन्दोलन प्रारंभ हुआ था, वह अब भी वैसा ही उपेक्षित पड़ा हुआ है।  कुछ इसी भाव पर छत्तीसगढ़ी भाषा में लिखा गया मेरा यह गीत...)

राज बनगे-राज बनगे, देखे सपना धुआं होगे
चारों मुड़ा कोलिहा मन के, देखौ हुआं-हुआं होगे

का-का सपना देखे रिहिन पुरखा अपन राज बर
नइ चाही उधार के राजा, हमला सुख-सुराज बर
राजनीति के पासा लगथे, महाभारत के जुआ होगे.....

शेर-बघवा भालू-चीता, हाथी के चिंघाड़ नंदागे
सत रद्दा रेंगइया मन के इतिहास ले नांव भुलागे
जतका ढोंगी, जोगी-भोगी, तेकरे मन बर दुआ होगे....

तिड़ी-बिड़ी छर्री-दर्री, हमर चिन्हारी के परिभाषा
कला-साहित्य सबो जगा, चील-कौंवा के होगे बासा
बाहिर ले आये मन संतवंतीन, अउ घर के नारी छुआ होगे....

अरे कूदौ-फांदौ टोरौ-पोंछौ, काजर कस अंधरौटी ल
अपने खातिर बेलव-सेंकव, स्वाभिमान के रोटी ल
खूब पेराये हौ कुसियार बरोबर, सरबस छुहा-छुहा होगे...

सुशील भोले
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