Monday 30 December 2013

पहाड़ी कोरवाओं के गांव में...








छत्तीसगढ़ की आदिम जनजाति पहाड़ी कोरवा को केन्द्र सरकार द्वारा संरक्षित जनजाति के अंतर्गत शामिल किया गया है। जशपुर जिला में इनकी आबादी करीब 40 हजार बताई जाती है। इनके विकास के लिए पहाड़ी कोरवा आदिवासी विकास प्राधिकरण का गठन किया गया है। इस  प्राधिकरण के माध्यम से कोरोड़ों रुपये की राशि इनके विकास के लिए खर्च की जाती है, लेकिन विकास का सपना कहीं भी साकार होते नहीं दिखता। आज भी ये हर दृष्टि से पिछड़ेपन का नायाब उदाहरण बने हुए हैं।

पिछले दिनों बगीचा प्रवास के दौरान ब्लाक मुख्यालय बगीचा से जशपुर मार्ग पर करीब 16 कि.मी. की दूरी पर स्थित वनग्राम राजपुर जाने का अवसर मिला। पहाड़ और छोटी-छोटी पहाड़ी नदियों से घिरा यह ग्राम मुख्य मार्ग से लगा हुआ है। यहां सौर ऊर्जा के माध्यम से स्वच्छ जल और बिजली की व्यवस्था की गई है। लेकिन अन्य विकास की बातों का कहीं कोई दर्शन नहीं हुआ।

आश्चर्य जनक बात यह है कि इस गांव के प्रमुख अंधरु राम पूरे पहाड़ी कोरवा समाज के अध्यक्ष हैं, तथा पूर्व में ये पहाड़ी कोरवा विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष पद को भी सुशोभित कर चुके हैं। जब इनके गांव की दशा ऐसी है, तो अन्य गांव और लोगों की दशा को खुद ब खुद समझा जा सकता है।

वनग्राम राजपुर में स्थित थुहापाट नामक पहाड़ी पर कोरवा समाज के प्रमुख आराध्य देवी-देवताओं का स्थल है। यहां सात आलग-अलग स्थानों पर इनके आराध्य हैं, जहां ये स्वयं ही पूजा-पाठ और देखरेख का काम करते हैं। अंधरू राम जी अपने समाज के अध्यात्मिक क्षेत्र के भी प्रमुख हैं, वे ग्राम के ही अन्य लोगों को अपना शिष्य बनाकर उनके माध्यम से सभी धार्मिक कार्यों को पूर्ण करवाते हैं।

इनके प्रमुख देवताओं में महादेव, ब्रम्हा, विष्णु, काली, गौरी एवं हनुमान आदि प्रमुख हैं। थुहापाट पर स्थित धाम में प्रति मंगलवार एवं गुरुवार को रात्रि में भजन-पूजन, नृत्य-गायन एवं अन्य पारंपरिक लीलाओं का प्रदर्शन होता है। नवरात्र के अवसर पर यहां मेला जैसा रौनक होता है, लोग दूर-दूर से यहां अपनी मनौती मनाने आते हैं। जनआस्था है कि यहां आने वालों की हर मनोकामना पूर्ण होती है।

थुहापाट पर बिखरी हमारी मूल संस्कृति संरक्षण एवं संवर्धन की बाट जोह रही है। यदि यहां शासन के स्तर पर रंगमंच और मंदिर आदि का निर्माण हो जाये तो बहुत ही उत्तम कार्य हो जायेगा।

सुशील भोले
संजय नगर (टिकरापारा) रायपुर (छ.ग.)
मोबा. नं. 080853-05931, 098269-92811
ईमेल -  sushilbhole2@gmail.com

Sunday 29 December 2013

राजपुरी जलप्रपात में...

ब्लाक मुख्यालय बगीचा जिला-जशपुर (छत्तीसगढ़) स्थित राजपुरी जलप्रपात में ....








Thursday 26 December 2013

समाज सेवा...

समाज सेवा के होगे हावय, अब तो भइगे एक चिन्हारी
डांड़-बोड़ी संग चंदा-खोरी, छल-छिद्र अउ दांत-निपोरी.....

Tuesday 24 December 2013

छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति की उपेक्षा और नये मंत्री से अपेक्षा...

प्रति,
श्री अजय चंद्राकर जी,
संस्कृति मंत्री, छत्तीसगढ़ शासन

महोदय,
छत्तीसगढ़ राज्य का निर्माण हुए एक दशक से ऊपर हो चुका है, लेकिन अभी भी यहां की मूल-संस्कृति की स्वतंत्र पहचान नहीं बन पायी है। आज भी जब छत्तीसगढ़ की संस्कृति की बात होती है, तो अन्य प्रदेशों से लाये गये ग्रंथों के मापदण्ड पर इसे परिभाषित कर दिया जाता है।

आप तो इस बात से अच्छी तरह से वाकिफ हैं कि किसी भी प्रदेश की संस्कृति का मानक वहां के मूल निवासियों की संस्कृति होती है, न कि अन्य प्रदेशों से आये हुए लोगों की संस्कृति। लेकिन यह छत्तीसगढ़ का दुर्भाग्य है कि यहां आज भी मूल-निवासियों की संस्कृति को दरकिनार कर अन्य प्रदेशों की संस्कृति को छत्तीसगढ़ की संस्कृति के रूप में चिन्हित किया जा रहा है।

आप इस बात से भी वाकिफ हैं कि यहां का मूल निवासी समाज सदियों तक शिक्षा की रोशनी से काफी दूर रहा है, जिसके कारण वह अपनी संस्कृति और इतिहास को लिखित रूप नहीं दे पाया। परिणाम स्वरूप अन्य प्रदेशों से आये हुए लोग यहां की संस्कृति और इतिहास को लिखने लगे।

लेकिन यहां पर एक गलती यह हुई कि वे यहां की मूल-संस्कृति और इतिहास को वास्तविक रूप में लिखने के बजाय अपने साथ अन्य प्रदेशों से लाये गये ग्रंथों और संस्कृति के साथ घालमेल कर लिखने लगे। यही मूल कारण है, जिसके कारण छत्तीसगढ़ की मूल-संस्कृति और इतिहास का स्वतंत्र और वास्तविक रूप आज तक लोगों के समक्ष नहीं आ सका है।

यहां पर यह जान लेना भी आवश्यक है कि कला और संस्कृति दो अलग-अलग चीजें हैं। इसे इसलिए अलग-अलग चिन्हित किया जाना आवश्यक है, क्योंकि छत्तीसगढ़ी संस्कृति के नाम पर यहां की कुछ कला को और कला-मंडलियों को उपकृत कर संपूर्ण छत्तीसगढ़ी संस्कृति को कृतार्थ कर लेने का कर्तव्य पूर्ण हो जाना मान लिया जाता है।

कला और संस्कृति के मूल अंतर को समझने के लिए हम यह कह सकते हैं कि मंच के माध्यम से जो प्रदर्शन किया जाता है वह कला है, और जिन्हें हम पर्वों एवं संस्कार के रूप में जीते हैं वह संस्कृति है।
आप यहां के मूल-निवासी समाज के हैं, इसलिए यहां की पीड़ा को अच्छी तरह से जानते और समझते हैं। इसीलिए आपसे अपेक्षा भी ज्यादा की जा रही है, कि आप इस दिशा में ठोस कदम उठायेंगे और छत्तीसगढ़ को उसकी मूल-सांस्कृतिक पहचान से गर्वान्वित करेंगे।

मुझे लगता है कि यहां की मूल-संस्कृति की तार्किक रूप से संक्षिप्त चर्चा कर लेना भी आवश्यक है।
वास्तव में छत्तीसगढ़ की संस्कृति एक मौलिक संस्कृति है, जिसे हम सृष्टिकाल की या युग निर्धारण के मानक पर कहें तो सतयुग की संस्कृति कह सकते हैं। यहां पर कई ऐसे पर्व और संस्कार हैं, जिन्हें इस देश के किसी अन्य अंचल में नहीं जिया जाता। ऐसे ही कई ऐसे भी पर्व हैं, जिन्हें आज उसके मूल स्वरूप से परिवर्तित कर किसी अन्य घटना के साथ जोड़कर प्रचारित किया जा रहा है। आइए कुछ ऐसे ही दृश्यों पर तार्किक चर्चा कर लें।

सबसे पहले उस बहुप्रचारित व्यवस्था पर, जिसे हम चातुर्मास के नाम पर जानते हैं। ऐसा कहा जाता है कि चातुर्मास (आषाढ़ शुक्ल पक्ष एकादशी से लेकर कार्तिक शुक्ल पक्ष एकादशी तक) में देवता सो जाते हैं, (कुछ लोग इसे योग निद्रा कहकर बचने का प्रयास करते हैं।) इसलिए इन चारों महीनों में किसी भी प्रकार का मांगलिक कार्य नहीं करना चाहिए। अब छत्तीसगढ़ के संदर्भ में देखें, तो यह व्यवस्था यहां लागू ही नहीं होती। यहां चातुर्मास पूर्ण होने के दस दिन पहले ही भगवान शंकर और देवी पार्वती का विवाह पर्व 'गौरा-गौरी उत्सव", जिसे सुरहुत्ती भी कहते हैं, के रूप में मनाया जाता है। अब जब भगवान की ही शादी देवउठनी से पहले हो जाती है, तो फिर उनके सोने (शयन करना) या फिर इन महीनों को मांगलिक कार्यों के लिए किसी भी प्रकार से अशुभ मानने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। बल्कि यहां पर यह कहना ज्यादा अच्छा होगा कि छत्तीसगढ़ की संस्कृति में चातुर्मास के इन चारों महीनों को ही सबसे ज्यादा शुभ और पवित्र माना जाता है, क्योंकि इन्हीं चारों महीनों में यहां के सभी प्रमुख पर्व संपन्न होते हैं।

श्रावण अमावस्या को मनाए जाने वाले पर्व 'हरेली" से लेकर देखें तो इस महीने की शुक्ल पक्ष पंचमी को 'नागपंचमी" तथा पूर्णिमा को 'शिव लिंग प्राकट्य" दिवस के रूप में मनाया जाता है। भादो मास में कृष्ण पक्ष षष्ठी को स्वामी कार्तिकेय का जन्मोत्सव पर्व 'कमर छठ" के रूप में, अमावस्या तिथि को नंदीश्वर का जन्मोत्सव 'पोला" के रूप में, शुक्ल पक्ष तृतीया को देवी पार्वती द्वारा भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए किए गए कठोर तप के प्रतीक स्वरूप मनाया जाने वाला पर्व 'तीजा" तथा चतुर्थी तिथि को विघ्नहर्ता और देव मंडल के प्रथम पूज्य भगवान गणेश का जन्मोत्सव पर्व।

क्वांर मास का कृष्ण पक्ष हमारी संस्कृति में स्वर्गवासी हो चुके पूर्वजों के स्मरण के लिए मातृ एवं पितृ पक्ष के रूप में मनाया जाता है। शुक्ल पक्ष माता पार्वती (आदि शक्ति) के जन्मोत्सव का पर्व नवरात्र के रूप में (यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि यहां की संस्कृति में वर्ष में दो बार जो नवरात्र मनाया जाता है, उसका कारण आदि शक्ति के दो बार अवतरण को कारण माना जाता है। प्रथम बार वे सती के रूप में आयी थीं और दूसरी बार पार्वती के रूप में। सती के रूप में चैत्र मास में तथा पार्वती के रूप में क्वांर मास में)। क्वांर शुक्ल पक्ष दशमीं तिथि को समुद्र मंथन से निकले विष का हरण पर्व दंसहरा (दशहरा) के रूप में मनाया जाता है। (बस्तर में इस अवसर पर जो रथयात्रा का आयोजन किया जाता है, वह वास्तव में मंदराचल पर्वत के माध्यम से समुद्र मंथन का पर्व है। आगे इसकी विस्तृत चर्चा करेंगे)। तथा विष हरण के पांच दिनों के बाद क्वांर पूर्णिमा को अमृत प्राप्ति का पर्व 'शरद पूर्णिमा" के रूप में मनाया जाता है।

इसी प्रकार कार्तिक मास में अमावस्या तिथि को मनाया जाने वाला भगवान शंकर तथा देवी पार्वती का विवाह पर्व 'गौरा-गौरी उत्सव" में सम्मिलित होने के लिए लोगों को संदेश देने का आयोजन 'सुआ नृत्य" के रूप में किया जाता है, जो पूरे कृष्ण पक्ष में पंद्रह दिनों तक उत्सव के रूप में चलता है। इन पंद्रह दिनों में यहां की कुंवारी कन्याएं 'कार्तिक स्नान" का भी पर्व मनाती हैं। यहां की संस्कृति में मेला-मड़ई के रूप में मनाया जाने वाला उत्सव भी कार्तिक मास की पूर्णिमा तिथि से ही प्रारंभ होता है, जो भगवान शंकर के जटाधारी रूप में प्रागट्य होने के पर्व महाशिवरात्रि तक चलता है।

चातुर्मास के अंतर्गत हम 'दंसहरा" की चर्चा कर रहे थे। तो यहां यह जान लेना आवश्यक है दशहरा (वास्तव में दंस+हरा) और विजया दशमी दो अलग-अलग पर्व हैं। दशहरा या दंसहरा सृष्टिकाल के समय संपन्न हुए समुद्र मंथन से निकले दंस विष के हरण का पर्व है तो विजयी दशमी आततायी रावण पर भगवान राम के विजय का पर्व है। यहां के बस्तर में दशहरा के अवसर पर जो 'रथयात्रा" का पर्व मनाया जाता है, वह वास्तव में दंस+हरा अर्थात दंस (विष) हरण का पर्व है, जिसके कारण शिवजी को 'नीलकंठ" कहा गया। इसीलिए इस तिथि को नीलकंठ पक्षी (टेहर्रा चिरई) को देखना शुभ माना जाता है, क्योंकि इस दिन उसे विषपान करने वाले शिवजी का प्रतीक माना जाता है।

बस्तर के रथयात्रा को वर्तमान में कुछ परिवर्तित कर उसके कारण को अलग रूप में बताया जा रहा है, बिल्कुल वैसे ही जैसे राजिम के प्रसिद्ध पारंपरिक 'मेले" के स्वरूप को परिवर्तित कर 'कुंभ" का नाम देकर उसके स्वरूप और कारण को परिवर्तित कर दिया गया है। पहले दशहरा के अवसर पर प्रतिवर्ष नया रथ बनाया जाता था, जो कि मंदराचल पर्वत का प्रतीक होता था, क्योंकि मंदराचल पर्वत के माध्यम से ही समुद्र मंथन किया गया था। चूंकि मंदराचल पर्वत को मथने (आगे-पीछे खींचने) के कार्य को देवता और दानवों के द्वारा किया गया था, इसीलिए इस अवसर पर बस्तर क्षेत्र के सभी ग्राम देवताओं को इस दिन रथयात्रा स्थल पर लाया जाता था। उसके पश्चात रथ को आगे-पीछे खींचा जाता था, और जब आगे-पीछे खींचे जाने के कारण रथ टूट-फूट जाता था, तब विष निकलने का दृश्यि उपस्थित करने के लिए उस रथ को खींचने वाले लोग इधर-उधर भाग जाते थे। बाद में जब वे पुन: एकत्रित होते थे, तब उन्हें विष वितरण के रूप में दोने में मंद (शराब) दिया जाता था।

इस बात से प्राय: सभी परिचित हैं कि समुद्र मंथन से निकले 'विष" के हरण के पांच दिनों के पश्चात 'अमृत" की प्राप्ति हुई थी। इसीलिए हम लोग आज भी दंसहरा तिथि के पांच दिनों के पश्चात अमृत प्राप्ति का पर्व 'शरद पूर्णिमा" के रूप में मनाते हैं।

यहां के मूल पर्व को किसी अन्य घटना के साथ जोड़कर लिखे जाने के संदर्भ में हम 'होली" को उदाहरण के रूप में ले सकते हैं। छत्तीसगढ़ में जो होली मनाई जाती है वह वास्तव में 'काम दहन" का पर्व है, न कि 'होलिका दहन" का। यह काम दहन का पर्व है, इसीलिए इसे मदनोत्सव या वसंतोत्सव के रूप में भी स्मरण किया जाता है, जिसे माघ महीने की शुक्ल पक्ष पंचमी तिथि से लेकर फाल्गुन मास की पूर्णिमा तिथि तक लगभग चालीस दिनों तक मनाया जाता है।

सती आत्मदाह के पश्चात तपस्यारत शिव के पास आततायी असुर के संहार के लिए शिव-पुत्र प्राप्ति हेतु देवताओं द्वारा कामदेव को भेजा जाता है, ताकि उसके (शिव) अंदर काम वासना का उदय हो और वे पार्वती के साथ विवाह करें, जिससे शिव-पुत्र के हाथों मरने का वरदान प्राप्त असुर के संहार के लिए शिव-पुत्र (कार्तिकेय) की प्राप्ति हो। देवमंडल के अनुरोध पर कामदेव बसंत के मादकता भरे मौसम का चयन कर अपनी पत्नी रति के साथ माघु शुक्ल पक्ष पंचमीं को तपस्यारत शिव के सम्मुख जाता है। उसके पश्चात वासनात्मक शब्दों, दृश्यों और नृत्यों के माध्यम से शिव-तपस्या भंग करने की कोशिश की जाती है, जो फाल्गुन पूर्णिमा को शिव द्वारा अपना तीसरा नेत्र खोलकर उसे (कामदेव को) भस्म करने तक चलती है।

छत्तीसगढ़ में बसंत पंचमी (माघ शुक्ल पंचमी) को काम दहन स्थल पर अंडा (अरंडी) नामक पेड़  गड़ाया जाता है, वह वास्तव में कामदेव के आगमन का प्रतीक स्वरूप होता है। इसके साथ ही यहां वासनात्मक शब्दों, दृश्यों और नृत्यों के माध्यम से मदनोत्सव का सिलसिला प्रारंभ हो जाता है। इस अवसर पर पहले यहां 'किसबीन नाच" की भी प्रथा थी, जिसे रति नृत्य के प्रतीक स्वरूप आयोजित किया जाता था। 'होलिका दहन" का संबंध छत्तीसगढ़ में मनाए जाने वाले पर्व के साथ कहीं पर भी दृष्टिगोचर नहीं होता। होलिका तो केवल एक ही दिन में चिता रचवाकर उसमें आग लगवाती है, और उस आग में स्वयं जलकर भस्म हो जाती है, तब भला उसके लिए चालीस दिनों का पर्व मनाने का सवाल ही कहां पैदा होता है? और फिर वासनात्मक शब्दों, दृश्यों और गीत-नृत्यों का होलिका से क्या संबंध है?

मूल संस्कृति की चर्चा करते हुए कुछ बातें यहां के इतिहास लेखन की भी हो जाए तो बेहतर होगा, क्योंकि यहां की मूल संस्कृति के नाम पर अभी तक हम सृष्टिकाल या कहें कि सतयुग की संस्कृति की चर्चा करते आए हैं तो फिर प्रश्न उठता है कि छत्तीसगढ़ के इतिहास को केवल रामायण और महाभारत कालीन ही क्यों कहा जाता है? इसे सतयुग या सृष्टिकाल तक विस्तारित क्यों नहीं कहा जाता? जबकि बस्तर के लोक गीतों में इस बात का उल्लेख मिलना बताया जाता है, कि शिवजी देवी पार्वती के साथ अपने जीवन काल में सोलह वर्षों तक बस्तर में व्यतीत किए हैं।

इस संदर्भ में एक कथा प्राप्त होती है, जिसके अनुसार भगवान गणेश को प्रथम पूज्य का आशीर्वाद प्राप्त हो जाने के कारण उनके ज्येष्ठ भ्राता कार्तिकेय नाराज हो जाते हैं, और वह हिमालय का त्याग कर दक्षिण भारत में रहने के लिए चले जाते हैं। उन्हीं रूठे हुए कार्तिकेय को मनाने के लिए शिवजी देवी पार्वती के साथ यहां बस्तर में आकर सोलह वर्षों तक रूके हुए थे। छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति में शिव और शिव परिवार का जो वर्चस्व है, शायद उसका यही कारण है कि शिवजी यहां सोलह वर्षों तक निवासरत रहे थे।

यह भी ज्ञातव्य है कि दक्षिण भारत में कार्तिकेय की ही सबसे ज्यादा पूजा होती है। उन्हें मुरगन स्वामी के नाम पर जाना जाता है। शायद उनके दक्षिण भारत में निवासरत रहने के कारण ही ऐसा संभव हुआ है। तब प्रश्न यह उठता है कि हमारे इतिहासकारों को इतना गौरवशाली अतीत क्यों  ज्ञात नहीं हुआ? क्यों वे यहां के इतिहास को मात्र द्वापर और त्रेता तक सीमित कहते हैं?

मुझे ऐसा लगता है कि इन सबका एकमात्र कारण है, उनके द्वारा मानक स्रोत का गलत चयन। वे जिन ग्रंथों को यहां के इतिहास एवं संस्कृति के मानक के रूप में उद्घृत करते हैं, वास्तव में उन्हें छत्तीसगढ़ के मापदंड पर लिखा ही नहीं गया है। इस बात से तो सभी परिचित हैं कि यहां के मूल निवासी शिक्षा के प्रकाश से कोसों दूर थे, इसलिए वे अपनी संस्कृति और इतिहास को लिखित स्वरूप नहीं दे पाए। इसलिए जब अन्य प्रदेशों से यहां आकर बस जाने वाले लोगों ने यहां के इतिहास और संस्कृति को लिखित रूप देना प्रारंभ किया तो वे अपने साथ अपने मूल प्रदेशों से लाए गए ग्रंथों और संस्कृति को मानक मानकर 'छत्तीसगढ़" को परिभाषित करने लगे।

आज उस लिखित स्वरूप और यहां की मूल (अलिखित) स्वरूप में जो अंतर दिखाई देता है, उसका वास्तविक कारण यही है। इसलिए यहां के मूल निवासी जो अब स्वयं भी शिक्षित हो चुके हैं, वे चाहते हैं कि यहां की संस्कृति एवं इतिहास का पुनर्लेखन हो, और उस लेखन का आधार अन्य प्रदेशों से लाए गए ग्रंथों की बजाय यहां की मूल संस्कृति और लोक परंपरा हो।

सुशील भोले
कवि एवं पत्रकार
म.नं. 41-191, डॉ. बघेल गली,
संजय नगर (टिकरापारा) रायपुर (छ.ग.)
मोबा. नं. 080853-05931, 098269-92811
ईमेल -   sushilbhole2@gmail.com

Sunday 22 December 2013

दीवारों पर संस्कृति के रंग....

छत्तीसगढ़ शासन के संस्कृति विभाग ने राजधानी रायपुर के डिग्री गल्र्स कॉलेज की दीवारों (बूढ़ा तालाब मार्ग) पर अंचल की संस्कृति को उकेरने का प्रयास किया है...
1-ढेंकी (धान कुटाई का पारंपरिक दृश्य)
2-दही बिलोती (मथ रही) महिला
3-सुआ नृत्य
4-हाट बाजार (मछरी पसरा)





Saturday 21 December 2013

छत्तीसगढ़ी का अतीत और भविष्य विषय पर अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी

पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर के साहित्य एवं भाषा-अध्ययनशाला द्वारा 20 से 24 दिसंबर तक 'छत्तीसगढ़ी का अतीत और भविष्य : विकास की संभावनाएं" विषय पर अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया है। विश्वविद्यालय की स्वर्ण-जयंती समारोह के अंतर्गत आयोजित इस कार्यक्रम के उद्घाटन समारोह के मुख्य-अतिथि छत्तीसगढ़ के राज्यपाल एवं कुलाधिपति शेखर दत्त थे। अध्यक्षता कुलपति प्रो. शिव कुमार पाण्डेय ने की। इस अवसर पर 10 विशिष्टजनों को छत्तीसगढ़ रत्न सम्मान से अलंकृत किया गया। कार्यक्रम की एक झलक...... 1-स्वागत द्वार पर रंगोली, 2-साहित्यकार श्यामलाल जी चतुर्वेदी का सम्मान, 3- गायिका ममता चंद्राकर, 4-डा. सुरेन्द्र दुबे, 5-अनुज शर्मा, 6-नंद किशोर शुक्ला, 7-डा. वेद प्रकाश बटुक, 8-राज्यपाल शेखर दत्त का उद्बोधन। (सभी फोटो-सुशील भोले)








Thursday 19 December 2013

आओ सखी चुगली करें....

(महिलाओं की एक चर्चित-आदत पर ... हल्के-फुल्के अंदाज में...फोटो-ललित डाट काम से)














आओ सखी चुगली करें,
मुन्नों के पापाओं को उंगली करें... आज चुगली....

तेल-नून-चुल्हा में हम ही तो खटते हैं
बिखर जाये परिवार तो पुल हमीं बनते हैं
तब भी बनते हैं धुरंधर बल्लेबाज, इन्हें गुगली करें...

आज गिनाते हैं उन्हें, घर कैसे चलता है
समस्याओं का जख्म सखी कैसे खिलता है
बढ़ाकर उनके भी घाव, जरा खुजली करें... आज चुगली...

सुशील भोले
संजय नगर, रायपुर (छ.ग.)
मोबा. नं. 080853-05931, 098269-92811
ईमेल -   sushilbhole2@gmail.com

Tuesday 17 December 2013

लोकमंचों की बहुमुखी प्रतिभा मीना पवार

छत्तीसगढ़ी लोक मंचों पर एक से बढ़कर एक प्रतिभाओं ने अपनी कला का जादू बिखेरा है, जिसके कारण यहां का कला संसार काफी समृद्ध नजर आता है। इन मंचीय कलाकारों में से कुछ ने यहां छत्तीसगढ़ी भाषा में बन रही फिल्मों में भी अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है, ऐसे ही कलाकारों में एक कलाकार हैं मीना पवार जी।

बीते रविवार 15 दिसंबर को महाकोशल कला वीथिका रायपुर के मंच पर चंद्रशेखर चकोर के निर्देशन में नाटक *खोखन खल्लू* का मंचन किया गया। नाटक प्रारंभ होने के पूर्व इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही कलाकार मीना पवार जी के साथ मेरी मुलाकात हो गई।

मीना जी छत्तीसगढ़ी नाट्य मंचों के साथ ही साथ छत्तीसगढ़ी फिल्मों की भी प्रतिभासंपन्न कलाकार हैं। अभी तक उन्होंने गुरांवट, दिल तोर दीवाना, प्रेम के जीत, तोला ले जाहूं उढ़रिया, बिन जांवर कइसन भांवर, किस्मत के खेल, कका, मोहनी आदि फिल्मों में काम किया है। इसके साथ ही साथ टेकहाराजा, खोखन खल्लू, फोकलवा आदि नाटकों में भी काम किया है।

मीना जी का जन्म 28 अक्टूबर 1960 को माता सरस्वती देवी एवं पिता राजेश्वर राव की संतान के रूप में रायपुर के मौदहापारा में हुआ। उनकी पांचवीं तक की शिक्षा पास के ही गंज स्कूल में हुई। उनका विवाह पिथौरा जिला-महासमुंद के निकट स्थित गांव राजासेवइया के धनीराव पवार के साथ हुआ था, जिनसे उन्हें एकमात्र संतान सुपुत्री मयूरी के रूप में प्राप्त हुई है।

मीना जी बताती हैं कि उनकी पुत्री मयूरी का भी बचपन में कला के प्रति रुझान था लेकिन बाद में वह केवल पढ़ाई पर ध्यान देने लगी। मयूरी ने हिन्दी साहित्य में एम.ए. किया है, और उसके पश्चात वह अपनी रोजी-रोटी और घर-गृहस्थी के काम में व्यस्त हो गई है।

रायपुर के प्रोफेसर कालोनी स्थित सेक्टर-3 में रह रही मीना जी बताती हैं कि उन्हें कला के प्रति लगाव तो बचपन से रहा है, लेकिन इसमें व्यापक सक्रियता पति के गुजर जाने के पश्चात ही आया है। इससे उन्हें आत्म संतुष्टि भी मिल रही है, और साथ ही कुछ पैसा भी बन जाता है।

मीना जी अपने अभिनय के बारे में बताती हैं कि वे सिनेमा और मंच दोनों ही क्षेत्रों में विविध प्रकार की भूमिकाओं में आती हैं। कभी चरित्र अभिनेत्री के रूप में तो कभी नर्तकी और सहयोगी कलाकार के रूप में। इसीलिए उन्हें लगातार ऑफर भी मिल रहे हैं, और जब तक निर्माता-निर्देशक उनपर विश्वास करते रहेंगे तब तक वे इस क्षेत्र से जुड़ी रहेंगी, अभिनय-यात्रा में सक्रिय रहेंगी।


हमारा छत्तीसगढ़ी कलासंसार ऐसे ही प्रतिभासंपन्न एवं समर्पित कलाकारों के कारण निरंतर प्रगति के पथ पर अग्रसर हो रहा है। मीना जी के उज्जवल भविष्य की कामना के साथ ही साथ अनेकानेक बधाई....

सुशील भोले
डॉ. बघेल गली, संजय नगर,
(टिकरापारा) रायपुर (छ.ग.)
मोबा. नं. 080853-05931, 098269-92811
ईमेल -  sushilbhole2@gmail.com

Monday 16 December 2013

मीर अली मीर...

छत्तीसगढ़ी कवि सम्मेलन के मंचों पर इन दिनों जो स्वर सबसे ज्यादा सुनाई दे रहा है, वह है मीर अली मीर जी का। उनका एक गीत ..*नंदा जाही का रे...* काफी लोकप्रिय हुआ है। मीर जी के साथ वैसे तो मुझे अनेक मंचों पर कविता पाठ करने का अवसर मिला है। लेकिन किसी कार्यक्रम के दौरान सबसे अंतिम पंक्ति पर बैठकर गप्प मारने का अवसर विरले ही मिल पाता है... एक ऐसे ही अवसर पर.... मैं सुशील भोले और मीर अली मीर.....

Wednesday 11 December 2013

धान मिंजाई के पारंपरिक तरीके...

छत्तीसगढ़ में धान मिंजाई के लिए पहले कुछ बैलों को एक साथ जोतकर दंउरी पद्धति का उपयोग करते थे। इसी तरह लकड़ी से बने बेलन (एक बड़े पेड़ के तने से बना) का भी प्रयोग किया जाता था, जिसे दो बैल या भैंस के द्वारा खींचा जाता था। धान की मिंजाई के लिए उन बैलों को हांकने वाले के बैठने के लिए भी उसमें स्थान होता था। हम लोग जब प्रायमरी में पढ़ते थे तब गांव जाना होता था... तब बेलन चढ़ने का खूब आनंद लेते थे... अब तो जब से हार्वेस्टर (मशीन के द्वारा धान कटाई और मिजाई का उपकरण) आया है, पारंपरिक तरीके से धान मिंजाई का दृश्य देखना दुर्लभ हो गया है।

पंडवानी के आदि गुरु




वर्तमान छत्तीसगढ़ में पंडवानी गायन की एक समृद्ध परंपरा देखी जा रही है। इस विधा के गायक-गायिकाओं को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिल रही है। पद्मश्री से लेकर अनेक राष्ट्रीय और प्रादेशिक पुरस्कारों से ये नवाजे जा रहे हैं। लेकिन इस बात को कितने लोग जानते हैं कि इस विधा के छत्तीसगढ़ में प्रचलन को कितने वर्ष हुए हैं और उनके पुरोधा पुरुष कौन हैं?

आपको यह जानकर सुखद आश्चर्य होगा कि ग्राम झीपन (रावन) जिला-बलौदाबाजार के कृषक मुडिय़ा राम वर्मा के पुत्र के रूप में जन्मे स्व. श्री नारायण प्रसाद जी वर्मा को छत्तीसगढ़ में पंडवानी गायन विधा के जनक होने का गौरव प्राप्त है। उन्होंने गीता प्रेस से प्रकाशित सबल सिंह चौहान की कृति से प्रेरित होकर यहां की पारंपरिक लोकगीतों के साथ प्रयोग कर के पंडवानी गायन कला को यहां विकसित किया।

मुझे स्व. नारायण प्रसाद जी के पुश्तैनी निवास जाने का अवसर प्राप्त हुआ है। उनकी चौथी पीढ़ी के संतोष और निलेश कुमार के साथ ही साथ ग्राम के ही एक शिक्षक ईनू राम वर्मा, जो  नारायण प्रसाद जी के व्यक्तित्व-कृतित्व पर काफी काम कर रहे हैं, तथा आसपास के कुछ बुजुर्गों से यह जानकारी प्रप्त हुई कि नारायण प्रसाद जी अनेक ग्रंथों का अध्ययन किया करते थे। और उन सभी का निचोड़ वे अपने पंडवानी गायन में किया करते थे।

उनके जन्म एवं निधन की निश्चित तारीख तो अभी प्राप्त नहीं हो पायी है (संबंधित थाना एवं पाठशाला में आवेदन दे दिया गया है, और उम्मीद है कि जल्द ही प्रमाणित तिथि हम सबके समक्ष आ जायेगी।) लेकिन यह बताया जाता है कि उनका निधन सन् 1971 में हुआ था, उस वक्त वे लगभग 80 वर्ष के थे।

पंडवानी शब्द का प्रचलन
नारायण प्रसाद जी को लोग भजनहा (भजन गाने वाला) कहकर संबोधित करते थे। यह इस बात का प्रमाण है कि उनके समय तक पंडवानी शब्द प्रचलन में नहीं आ पाया था। पंडवानी शब्द बाद में प्रचलित हुआ होगा, क्योंकि उसके बाद के पंडवानी गायकों को पंडवानी गायक के रूप में संबोधित किया जाता है, साथ ही इन्हें शाखाओं के साथ (वेदमति या कापालिक) जोड़कर चिन्हित किया जाता है। ऐसा इसलिए हो रहा है, क्योंकि पंडवानी गायन के साथ ही साथ इस विषय पर अब काफी काम हो चुका है, लेकिन जिस समय नारायण प्रसाद जी इस विधा को मंच पर प्रस्तुत करना आरंभ किये थे तब यह बाल्यावस्था में था। तब इसे भजन के रूप में देखा जाता था, और इसके गाने वाले को भजनहा अर्थात भजन गाने वाले के रूप में।

पंडवानी की मंचीय प्रस्तुति के लिए वे अपने साथ में एक सहयोगी जिसे आज हम रागी के रूप में जानते हैं, रखते थे। उनके रागी गांव के ही भुवन सिंह वर्मा थे, जो खंजेड़ी भी बजाते थे और रागी की भूमिका भी निभाते थे। नारायण प्रसाद जी तंबूरा और करताल बजाकर गायन करते थे। उनके कार्यक्रम को देखकर अनेक लोग प्रभावित होने लगे और उनके ही समान प्रस्तुति देने का प्रयास भी करने लगे, जिनमें ग्राम सरसेनी के रामचंद वर्मा का नाम प्रमुखता के साथ लिया जाता है, लेकिन उन लोगों को न तो उतनी लोकप्रियता मिली और न ही सफलता।

रात्रि में गायन पर प्रतिबंध
नारायण प्रसाद जी के कार्यक्रम की लोकप्रियता इतनी ज्यादा थी कि लोग उन्हें सुनने के लिए दूर-दूर से आते थे। जिस गांव में कार्यक्रम होता था, उस गांव के साथ ही साथ आसपास के तमाम गांव तो पूर्णत: खाली हो जाते थे। इसके कारण चोर-डकैत किस्म के लोगों की चांदी हो जाती थी। जहां कहीं भी कार्यक्रम होता, तो उसके आसपास चोरी की घटना अवश्य घटित होती, जिसके कारण उन्हें रात्रि में कार्यक्रम देने पर प्रतिबंध का सामना करना पड़ रहा था। वे पुलिस प्रशासन के निर्देश पर केवल दिन में ही कार्यक्रम दिया करते थे।  

एक मजेदार वाकिया बताया जाता है। महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में नारायण प्रसाद जी का कार्यक्रम था, वहां भी चोरी की घटनाएं होने लगीं। ब्रिटिशकालीन पुलिस वाले उन्हें यह कहकर थाने ले गये कि कार्यक्रम की आड़ में तुम खुद ही चोरी करवाते हो। असलियत जानने के पश्चात  बाद में उन्हें छोड़ दिया गया था। ज्ञात रहे कि उनके कार्यक्रम केवल आसपास के गांवों में ही नहीं अपितु पूरे देश में आयोजित होते थे।

प्रशासनिक क्षमता
नारायण प्रसाद जी एक उच्च कोटि के कलाकार और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के पुरोधा होने के साथ ही साथ प्रशासनिक कार्यों में भी निपुण थे। बताते हैं कि वे अपने जीवन के अंतिम समय तक ग्राम पटेल की जिम्मेदारी को निभाते रहे। इसी प्रकार ग्राम के सभी तरह के कार्यों की अगुवाई वे ही करते थे।

लगातार 18 दिनों तक कथापाठ
ऐसा कहा जाता है कि पंडवानी (महाभारत) की कथा का पाठ लगातार 18 दिनों तक नहीं किया जाता। इसे जीवन के अंतिम समय की घटनाओं के साथ जोड़ा जाता है। लेकिन नारायण प्रसाद जी ने अपने जीवनकाल में दो अलग-अलग अवसरों पर 18-18 दिनों तक कथा पाठ किया।
एक बार जब वे शारीरिक रूप से सक्षम थे, तब अपने ही गांव में पूरे सांगितीक गायन के साथ ऐसा किया, तथा दूसरी बार जब उनका शरीर उम्र की बाहुल्यता के चलते अक्षम होने लगा था, तब बिना संगीत के केवल कथा वाचन किया था।

ऐसा बताया जाता है कि पहली बार जब वे 18 दिनों का पाठ कर रहे थे, तब यह अफवाह फैल गई थी कि नारायण प्रसाद जी इस 18 दिवसीय कथा परायण के पश्चात समाधि ले लेंगे। इसलिए उन्हें अंतिम बार देख-सुन लेने की आस में लोगों का हुजुम उमडऩे लगा था। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। अलबत्ता यह जरूर बताया जाता है कि दूसरी बार जब वे 18 दिनों का कथा वाचन किये उसके बाद ज्यादा दिनों तक जीवित नहीं रह पाये... कुछ ही समय के पश्चात इस नश्वर दुनिया से प्रस्थान कर गये।

समाधि और जन आस्था 
आम तौर पर गृहस्थ लोगों के निधन के पश्चात उनके शव का श्मशान घाट पर अंतिम संस्कार कर दिया जाता है। लेकिन उनके ग्राम वासियों ने नारायण प्रसाद जी के निधन के पश्चात उन्हें श्मशान घाट ले जाने के बजाय ग्राम के तालाब में उनकी समाधि बनाना ज्यादा उचित समझा। और अन्य ग्राम्य देवताओं के साथ उन्हें भी शामिल कर लिया। ज्ञात रहे कि किसी भी पर्व-त्यौहार के अवसर पर नारायण प्रसाद जी की समाधि (मठ) पर ग्रामवासियों के द्वारा अन्य ग्राम्य देवताओं के साथ धूप-दीप किया जाता है।

पारिवारिक स्थिति
नारायण प्रसाद जी के पारिवारिक वृक्ष के संबंध में जो जानकारी उपलब्ध हो सकी है, उसके मुताबिक उनके पिता मुडिय़ा के पुत्र नारायण जी,  नारायण जी के पुत्र हुए घनश्याम जी, फिर घनश्याम जी के पुत्र हुए पदुम और फिर पदुम के दो पुत्र हुए जिनमें संतोष और निलेश अभी वर्तमान में घर का काम-काज देख रहे हैं।

यहां यह बताना आवश्यक लगता है कि नारायण प्रसाद जी के पुत्र घनश्याम भी अपने पिता के समान कथा वाचन करने की कोशिश करते थे। प्रति वर्ष पितृ पक्ष में बिना संगीत के वे कथा वाचन करते थे। लेकिन उनके पश्चात की पीढिय़ों में कथा वाचन के प्रति कोई रूझान दिखाई नहीं देता। आज जो चौथी पीढ़ी संतोष और निलेश के रूप में है, ये दोनों ही भाई केवल खेती-किसानी तक सीमित रहते हैं। शायद इसी के चलते नारायण प्रसाद जी का व्यक्तित्व-कृतित्व हमें पूर्ण रूप से उपलब्ध नहीं हो पाया। यदि इस क्षेत्र में रुचि रखने वाले वारिश होते तो शायद उनका संपूर्ण इतिहास लोगों के समक्ष उपलब्ध होता।

फोटो कैप्शन-
1- पंडवानी के आदिगुरु नारायण प्रसाद वर्मा
2- नारायण प्रसाद वर्मा एवं उनके रागी भुवन सिंह वर्मा
3- नारायण प्रसाद वर्मा जी की चौथी पीढ़ी के संतोष वर्मा के साथ, लेखक सुशील भोले एवं छत्तीसगढ़ी फिल्मों के नायक चंद्रशेखर चकोर
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सुशील भोले
संपर्क - 41/191, डा. बघेल गली,
संजय नगर (टिकरापारा) रायपुर (छ.ग.)
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Tuesday 10 December 2013

फेसबुक की नजर में....

फेसबुक ने सन् 2013 में मेरे द्वारा किये गये पोस्ट में से कुछ अच्छे और लोगों की दृष्टि में लोकप्रिय माने गये पोस्ट को अपने नजरिये से चयन किया है। आप भी इस लिंक को क्लिक कर इसका पुन:अवलोकन कर सकते हैं....
https://www.facebook.com/yearinreview/kavisushil.bhole

Monday 9 December 2013

वीर नारायण....

(छत्तीसगढ़ में स्वाधीनता आन्दोलन के प्रथम शहीद वीर नारायण सिंह को उनके शहादत दिवस (10 दिसंबर) पर श्रद्धांजलि सहित.....)




























वीर नारायण तोर सपना ह सुफल कहां फेर होवत हे
बस्ती-बस्ती गांव-गांव ह, भूख म आजो रोवत हे...

बाना बोहे तोर सपना के, मरगें फेर कतकों बलिदानी
नांव लिखा के इतिहास म, होगे सब अमर कहानी

सुंदर-प्यारे-खूबचंद कस बेटा जनमिन ए माटी म
भुखहा-दुखहा बर तोरे सहीं रेंगिन सत् के परिपाटी म

आज के लइका आंखी मूंदे, नीत-अनीत फेर झेलत हें
झीके छोंड़ के शोषक मनला, आगू डहर अउ पेलत हें

दावन ढीलाय हे फेर जंगल म, बरगे कतकों सोनाखान
का होही ये देश ल सोच के, रोवत होही खुद भगवान


आज कहूं तैं इहां होते, बंदूक-भाला-तिरशूल उठाते
माखन बनिया के गोदाम कस, कतकों ल तैं फेर बंटवाते

आथे सुरता जब-जब तोर, आंखी ले आंसू ढरथे
फेर बोहे बर तोर बाना ल, भुजा हर मोर फरकथे

का होही काल के चिंता, काकर बर हम करबो
तोरे देखाये रस्ता म, अब जिनगी भर फेर रेगबो

सुशील भोले
संजय नगर (टिकरापारा) रायपुर (छ.ग.)
मोबा. नं. 080853-05931, 098269-92811
ईमेल - sushilbhole2@gmail.com

Sunday 8 December 2013

छत्तीसगढ़ में क्षेत्रीय पार्टी...

छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण हो जाने के पश्चात भी यहां के मूल निवासियों को शासन-प्रशासन में जिस तरह से उपेक्षा का सामना करना पड़ रहा है, इनकी अस्मिता की स्वतंत्र पहचान बनने से जिस तरह से रोका जा रहा है। इन सबके बावजूद भी ऐसे ही तमाम मुद्दों को लेकर गठित यहां की क्षेत्रीय पार्टियों को स्थानीय चुनावों में जिस तरह से उचित परिणाम नहीं मिल पा रहा है, इसका क्या कारण हो सकता है...?
* क्या योग्य एवं ईमानदार नेतृत्व का अभाव..?
* क्या संगठन के प्रमुख पदों पर फर्जी किस्म के छत्तीसगढिय़ों को महत्वपूर्ण स्थान..?
* क्या क्षेत्रीय पार्टी की बात तो करना, लेकिन राष्ट्रीय पार्टी वालों के साथ भीतर ही भीतर सांठगांठ करना..?
* क्या छत्तीसगढ़ी अस्मिता की उपेक्षा के चलते स्थानीय लोगों में उनके प्रति अपनापन महसूस नहीं होना..?
* आप क्या सोचते हैं...?

सुशील भोले
संजय नगर, रायपुर (छ.ग.)
मोबा. नं. 080853-05931, 098269-92811
ईमेल - sushilbhole2@gmail.com

Friday 6 December 2013

बातचीत / शिवशंकर पटनायक

प्रकाशित रचनाएं केवल लेखक की नहीं अपितु पूरे समाज की होती हैं 




हिंदी साहित्य जगत में अहिंदी भाषी किंतु हिंदी साहित्य साधक शिवशंकर पटनायक का नाम अनजाना कतई नहीं है। छ.ग. शासन सहकारिता विभाग से प्रथम श्रेणी राजपत्रित अधिकारी के पद से सेवा निवृत्त श्री पटनायक की लगभग 45 कहानियां, 38 निबंध तथा 16 चिंतन का प्रकाशन 'इतवारी-अखबारÓ में हो चुका है। एक उपन्यासकार के रूप में उनके उपन्यास 'भीष्म प्रश्नों की शर शैय्या परÓ कालजयी कर्ण, एकलव्य, अग्नि-स्नान, आत्माहुति, समर्पण तथा पंच-कन्याएं (तारा, अहिल्या, मदोदरी, कुंती तथा द्रौपदी) में उन्हें पर्याप्त चर्चित किया है। वहीं एक कहानीकार के रूप में उन्होंने हिंदी साहित्य को 'पराजित पुरूष, प्रारब्ध, पलायन, डोकरी दाई, बचा रे दीपक पुंसत्व तथा अदालत के पहले जैसा कहानी संग्रह भी दिया है।
साहित्य में श्री पटनायक का व्यक्तित्व बहु-आयामी है। उनके लेख तथा चिंतन पाठकों को झकझोरने की क्षमता से युक्त है। भाषा पर पकड़ तथा शब्दों का भंडार के साथ धारा प्रवाह प्रस्तुतीकरण उन्हें खास बना देते हैं। पुरूष लेखक होकर भी नारी अंतर्मन, वेदना, दशा दिशा एवं अस्मिता के प्रति उनका दृष्टिकोण व्यापक है और शिद्दत से कहते हैं 'विश्व की लगभग आधी आबादी (नारी) को मात्र पूजनीया संबोधित कर देना ही पर्याप्त नहीं है। इक्कीसवीं सदी की मांग है कि नारी की अस्मिता को सर्वोच्च मान तथा सुरक्षा मिले। प्रस्तुत है उनके साथ हुई बातचीत के अंश-

0 आपकी दक्षता उडिय़ा, हिंदी, अंग्रेजी तथा छत्तीसगढ़ी में समान रूप से है, यह कैसे संभव हो सका?
मातृभाषा उडिय़ा है। मातृभूमि पिथौरा, छत्तीसगढ़ है। शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी रहा तथा हिंदी हमारी राष्ट्र-भाषा है। वैसे भी बाल्यपन से हिंदी के प्रति विशेष लगाव रहा है।

0 आपने कब से लिखना प्रारंभ कर दिया था?
भोले जी, नवमीं कक्षा में ही मैंने लगभग 200 पृष्ठ का उपन्यास 'पुष्करÓ लिख दिया था। जाने कैसे प्राचार्य स्व. श्री उमाचरण तिवारी जी को जानकारी हो गई। उन्होंने कहा था 'पढ़ाई-लिखाई में ध्यान दो। अभी उपन्यास लिखने की तुम्हारी उम्र नहीं है।Ó आगे उन्होंने कहा था जिसने मेरे अंतर्मन को प्रभावित किया 'शिवशंकर, हमेशा याद रखना लेखन के लिए अध्ययन, अनुभव और अभ्यास आवश्यक है। दसवीं कक्षा तक मैं रामचरित मानस, वाल्मिकी रामायण (हिंदी) महाभारत, शिवाजी, महाराणा प्रताप, गांधी दर्शन के साथ अनेकों पुस्तकों को पढ़ लिया था।Ó

0 क्या आपने यह नहीं सोचा कि इससे आपकी अपनी शिक्षा प्रभावित हो सकती थी?
नहीं इससे मेरी शिक्षा प्रभावित नहीं हुई। मैं अपने पाठ्यक्रम के प्रति भी गंभीर था। मेरे बड़े भाई मेरे सहपाठी थे। मैं विज्ञान का विद्यार्थी था और वे कला के किंतु मैं फिजिक्स, केमेस्ट्री के अलावे उनकी किताबें भूगोल, इतिहास, नागरिक शास्त्र तथा अर्थ शास्त्र भी उतनी ही रूचि से पढ़ जाता था।

0 इससे आपके व्यक्तित्व में क्या परिवर्तन आया या आपको क्या लाभ हुआ?
शिक्षा-शास्त्र में सर्वांगीण विकास को अत्यधिक महत्व दिया गया है। स्वस्थ्य काया ही व्यक्तित्व ही नहीं होता यह बाह्य स्वरूप है मात्र, अत: इसकी पूर्णता के लिए ज्ञान आवश्यक है। ज्ञान के लिए अध्ययन चाहिए और अध्ययन का फलक विशाल होता है। जहां तक मेरी बात है। मुझे सिर्फ किताब चाहिए चाहे लेखक कोई हो या विषय कुछ भी हो। सभी किताबें मुझे प्रिय लगती हैं।

0 आपके साहित्य पर बेमेतरा महाविद्यालय के सहायक प्राध्यापक श्री तिवारी ने पीएच.डी. की है, और भी कुछ कर रहे हैं, कैसा अनुभव होता है?
आत्म-संतुष्टि होती है कि मेरे साहित्य का मूल्यांकन हो रहा है। लगता है जैसे श्रम सार्थक हुआ।

0 क्या साहित्य में स्वांत: सुखाय लेखन भी होता है?
मेरे मत में साहित्य में स्वांत: सुखाय होता ही नहीं है। आप लिखिए, पढिय़े और अपने तक सीमित रखिए यह स्वांत: सुखाय है किंतु यदि आपकी रचना चाहे वह साहित्य की किसी भी विधा पर क्यों न हो, प्रकाशित हो जाए तब वह रचना आपकी नहीं सबकी हो जाती है। अत: साहित्यकार को समाज, राष्ट्र व विश्व मानवता को दृष्टिगत कर अपने लेखकीय दायित्वों का निर्वहन करना चाहिए। साहित्य का उद्देश्य रचनात्मक जागृति हो तथा मूल्यों के प्रति उसकी प्रतिबद्धता असंदिग्ध होना आवश्यक है।

0 साहित्य की किस विधा के प्रति आपका रुझान अधिक हैं और क्यों?
नि:संदेह एक कहानीकार के रूप में प्रथमत: मुझे पहचान मिली। कहानी साहित्य की सर्वाधिक लोक प्रिय विधा है किंतु कहानी लेखन एक प्रभु-प्रदत्त प्रतिभा है। कला है। इसमें पारंगत होना अत्यंत कठिन है। उपन्यास कहानी का विस्तारित रूप है अत: विस्तार में कहीं कुछ कमी आ जाये तो क्षम्य है किंतु कहानी में कहानीकार को शीर्षक से लेकर अंत तक कथानक, पात्र चयन, कथोप कथन, भाषा शैली तथा प्रवाह का ध्यान रखना आवश्यक है। फिर कहानी में एक उद्देश्य होना आवश्यक है। पाठक को संदेश देना अनिवार्य है।

0 आजकल की कहानियां किस स्थिति में हैं?
मैं प्रत्येक प्रकार की कहानियां पढ़ता हूं नि:संदेह कुछ स्तरीय कहानियां लिखी जा रही हैं किंतु अधिकांश कहानियां पाठक के मानस को बोझिल कर देती है। समझ ही नहीं आता कि कहानी कार कहना क्या चाहता है। इन्हें कहानी नहीं कहा जा सकता जो पाठक के मन व मष्तिष्क में एक सकारात्मक सोच उत्पन्न न कर सके।

0 आपने अपने उपन्यासों में पौराणिक पात्रों को अधिक महत्व दिया है तथा सामाजिक उपन्यास एक 'समर्पणÓ ही लिखा है?
देखिए भोलेजी यह सर्वमान्य तथ्य है कि इतिहास अपने आपको दोहराता है। अत: पौराणिक पात्रों को नए संदेश व परिष्कृत रूप में प्रस्तुत करना वह भी बिना यथार्थ से छेड़छाड़ किए आवश्यक है। महाभारत का महाविनाशक युद्ध लड़ा जा चुका है किंतु पूरी निष्पक्षता से विचार करिए कि क्या आज भी महाभारत युद्ध की संभावनाएं मौजूद नहीं है? मैंने पितामह गंगापुत्र भीष्म को प्रश्नों की शरशैय्या पर लिटाया है और आत्म-मंथन कराया है कि उस युग स्वयं वे इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त समय वीर, भगवान कृष्ण द्वैपायन वेद व्यास, धनुर्विधा के प्रतीक द्रोणाचार्य, कवच कुंडल धारी कर्ण, तथा साक्षात भगवान कृष्ण थे तथापि महाभारत का युद्ध क्यों हुआ? युद्ध के पश्चात स्थिति कितनी भयावह हुई?

0 लोग तो एकलव्य के संबंध में उनके द्वारा दायें हाथ का अंगूठा काटकर गुरु दक्षिण के रूप में मानस-गुरू, द्रोण को दे देने तक की घटना को जानते हैं किंतु आपने एकलव्य के संपूर्ण जीवन वृत्त को उकेर दिया है, यह कैसे संभव हुआ?
 वेद व्यास रचित महाभारत में भी एकलव्य के संबंध में मात्र इतनी ही जानकारी है किंतु एकलव्य पर मेरा गहन अध्ययन है। यह एक तरह से मेरा रिसर्च वर्क है। मैंने कर्ण एवं एकलव्य जैसे चरित्रों के माध्यम से सामाजिक स्थिति के लिए एक सार्थक चिंतन की दिशा को प्रशस्त करने का प्रयास किया है। वनवासी एकलव्य के जीवन दर्शन को जीवंत किया है। नारी अस्मिता, नारी शिक्षा, वन्य संस्कृति, वन-पुत्रों के मौलिक अधिकार, समाज में वनपुत्रों की दोयम दर्जे की नागरिकता के विरूद्ध एक रचनात्मक सोच को प्रस्तुत किया है।

0 क्या साहित्य में कल्पना को स्थान मिलना चाहिए?
 कल्पना और यथार्थ एक ही सिक्के के दो पहलू हंै, वैसे भी साहित्यकार सृजनकर्ता होता है। सामाजिक कल्याण व मूल्यों की पुनस्र्थापना के लिए यदि वास्तविकता को बिना नजर अंदाज किए हुए घटना को सार्थक कल्पना का हल्का पुट देकर प्रस्तुत किया जाता है तो यह स्वीकार्य भी है तथा सृजनधर्मिता के लिए आवश्यक भी।

0 आपके संबंध में कतिपय लेखकों का मत है कि आप नारी पात्रों को प्रमुखता देते हैं?
मुझे कोई आपत्ति नहीं है भोलेजी, कुछ माननीय लेखक मुझसे कहते भी हैं किंतु पुरुष शासित समाज में नारी के अंतर्मन की वेदना, हृदय की पीड़ा तथा उनके अस्तित्व संघर्ष को प्राथमिकता से समझना ही नहीं, निराकरण का मार्ग और उसके बला बनने के पूर्व समाज को सम्हल जाना भी आवश्यक है। विश्व की आधी आबादी को अब न्यून करके नहीं आंका जा सकता। किसी भी स्थिति में नारी अस्मिता से खिलवाड़ स्वीकार्य नहीं होना चाहिए। पुरूष मानसिकता को बदलना, आवश्यक है। तनिक यौन-मनोविज्ञान तो पढिय़े। मैंने तो रेखांकित कर दिया है लिखा है 'हर व्यक्ति स्वभाव से बलात्कारी होता है बशर्ते अनुकूल परिस्थितियां हों।Ó कितनी शर्म की बात है। धर्म के मूल में नारी है। हमारे अस्तित्व के मूल में नारी है। फिर भी नारी के प्रति ये धारणा? भोलेजी, यह साहित्यकारों का नैतिक कर्तव्य है कि नारी अस्मिता, अस्तित्व व अपराध जैसे विषयों पर गंभीर लेखन करें अन्यथा समाज राष्ट्र व विश्व के किसी विकास का कोई मूल्य नहीं।

0 आपके लेखों तथा चिंतन में आपने जीवन मूल्यों को सूक्ष्मता से प्रतिपादित किया है जिसकी सभी प्रशंसा करते हैं, ऐसा आप कैसे लिख लेते हैं?
अध्ययन एवं अनुभव के अतिरिक्त मां सरस्वती एवं प्रथम पूज्य गणपति गणेशजी की कृपा से। हां, भोलेजी, भोगा हुआ यथार्थ किसी पाठशाला से कम नहीं होता। अत: साहित्यकार पूरी निष्ठा से इस यथार्थ को पाठक तक पहुंचाये तब बात बने।

0 टी.वी. और कम्प्यूटर के इस युग में पढऩे के प्रति लोगों में रुझान नहीं रहा, क्या आप इससे सहमत हैं?
 नहीं, भोलेजी- मैं सहमत नहीं हूं। लेखन में यदि दम है तो पाठक पढऩे को विवश हो जाएगा। विषय-वस्तु, भाषा, शैली और प्रस्तुतीकरण में दम तो पैदा करिए फिर देखिए पाठक बस आपकी किताब का एक पन्ना तो पढ़ ले फिर तो अंत तक पढऩे को बाध्य हो जाएगा। साहित्य क्लिष्ट नहीं सरल होना चाहिए। भाषा जन भाषा होनी चाहिए। प्रमाण में रामायण को ही ले लीजिए। रामायण वाल्मिकी एवं बाबा तुलसीदास दोनों ने लिखी किंतु बाबा तुलसीदास जी का रामचरित मानस आज घर-घर में गांव-गांव में लोग पढ़ते एवं सुनते हैं।

सुशील भोले
संपर्क : डॉ. बघेल गली, संजय नगर
 (टिकरापारा) रायपुर (छ.ग.)
ईमेल - sushilbhole2@gmail.com
मोबा. नं. 080853-05931, 098269-92811

Tuesday 3 December 2013

जड़कल्ला जब आथे....


































आंखी रमजत मुंह ल फारत, जड़कल्ला जब आथे
सुरुज नरायण लजकुरहा कस, दुरिहच ले मुसकाथे...

घर ले बाहिर गली-खोर म, कनकनी खूब बरसथे
नवा तरइया के पानी हर, चांय ले कइसे करथे
नंदिया के पानी करा बरोबर, छाती धक ले करथे
दहरा जाड़ के मारे सरबस, हू..हू..हू..हू.. करथे....

सुर सुर सुर सुर सुर्रा के संग, देंह डार कस  डोलय
कटकट कटकट दांत ह कइसे, दुख के बोली बोलय
लाठी टेंकत जिनकर जिनगी, भीख के सेती चलथे
जाड़ इंकर बर काल बरोबर, सूतत-जागत रहिथे.....

दारू-कुकरा संग जिनकर जिनगी, कुंकरू कूं कस करथे
अइसन बलकरहा मनखे बर, जड़कल्ला खूब ठनकथे
सब के सुख ह इंकर बगल म, कइसे कलपत रहिथे
बियापथे नस-नस म जाड़ा, रकत सबो के जमथे....

सुशील भोले
संजय नगर, रायपुर (छ.ग.)
मोबा. नं. 080853-05931, 098269-92811
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