Wednesday 12 November 2014

लोक संस्कृति के ढेलवा-रहचुली मेला- मड़ई



छत्तीसगढ़ के संस्कृति म मेला-मड़ई मनके घलोक महत्वपूर्ण स्थान हे। मड़ई के शुरूआत जिहां देवारी ले होथे, उहें मेला के आयोजन ह कातिक पुन्नी ले होथे, जेन ह महाशिवरात्रि (फागुन अंधियार तेरस) तक चलथे। छत्तीसगढ़ के भीतर जतका भी सिद्ध शिव स्थल हे, उन सबो म मेला भराथे जेमा राजिम, सिरपुर, शिवरीनारायण, रायपुर के महादेवघाट आदि मन पूरा प्रदेश भर म परसिद्ध हें जिहां चारों मुड़ा के मनखे सैमो-सैमो करत रहिथें। एकर छोड़े अउ कतकों जगा हे जिहां स्थानीय स्तर म अलग-अलग तिथि म मेला आयोजन होवत रहिथे।

खेत म खड़े धान के सोनहा लरी जब बियारा अउ बियारा ले मिसा- ओसा के घर के माई कोठी म खनके लगथे, तब ये मेला-मड़ई के शुरूआत होथे। एकरे सेती कतकों लोगन एला कृषि संस्कृति के अंग मानथें। फेर जिहां तक देखब म आथे के एकर संबंध कोनो न कोना किसम ले अध्यात्म संग जुड़े होथे। छत्तीसगढ़ आदिकाल ले बूढ़ादेव के रूप म भगवान शिव के उपासक रहे हे, एकरे सेती इहां जतका भी बड़का मेला के आयोजन होथे, जम्मो ह सिद्ध शिव स्थल म ही होथे। पहिली ए अवसर ए बधई(पूजवन) देके घलोक चलन रिहीसे। फेर जइसे-जइसे लोगन म शिक्षा के प्रसार होवत जावत हे वइसे-वइसे अब मरई-हरई के रीत ह कमतियावत जावत हे। बिल्कुल वइसने जइसे पहिली जंवारा बोवइया वाले मन अनिवार्य रूप ले बधई देवयं, फेर अब उहू मन सेत (सादा, बिन पूजवन के) जंवारा बो लेथें तइसने मेला-मड़ई म घलोक लोगन अपन मनौती ल सिरिफ नरियर आदि फल-फलहरी म भगवान ल मना लेथें। फेर कतकों मनखे अभी घलोक पूजवन के रिवाज ल धरे बइठे हें।
मेला संग जुड़े ये आध्यात्मिक रूप ह ए बात के जानबा देथे के एकर संबंध सिरिफ खेती-किसानी वाला नहीं भलुक आध्यात्मिक संस्कृति संग घलोक हे। फेर एकर गलत रूप म व्याख्या के संगे-संग एकर आयोजन के कारन अउ रूप ल घलोक बदले जावत हे जेला कोनो भी रूप म अच्छा नइ केहे जा सकय। उदाहरण के रूप म छत्तीसगढ़ के प्रयाग कहे जाने वाला राजिम के प्रसिद्ध पारंपरिक मेला जेला अब कुंभ के रूप म प्रचारित करे जावत हे तेला ले सकथन।

मेला के कोनो भी बड़का आयोजन ल कुंभ के संज्ञा तो दिए जा सकथे फेर वोकर कारन ल बदलना ह अच्छा बात नोहय। छत्तीसगढ़ के संगे-संग देश म भरने वाला जम्मो मेला ह सिरिफ शिव स्थल म ही भरथे, एकरे सेती नानपन ले ये सुनत आये रहे हन के राजिम मेला ह कुलेश्वर महादेव के नांव म भराथे। फेर अब जब ले एकर नांव ल कुंभ कर दिए गेहे तब ले एकर कारन ल राजीव लोचन के नांव म भरने वाला बताए जाथ्ेा। एहर इहां के मूल संस्कृति के संग खिलवाड़ आय जेला कोनो भी रूप म माफी नइ करे जा सकय। सरकार अउ कथित संस्कृति मर्मज्ञ मनला अपन अइसन गलती ल सुधारना चाही।

राजिम मेला के संगे-संग इहां पंचकोसी यात्रा के महत्व घलो बताये जाथे, जेमा राजिम के संगम म स्थित कुलेश्वर महादेव के संगे-संग चंपेश्वर महादेव (चांपाझार या चम्पारण्य), बम्हनिकेश्वर महादेव (बम्हनी), फणिकेश्वर महादेव (फिंगेश्वर), अउ कमरेश्वर महादेव (कोपरा) के एके संग दरसन करे के रिवाज हे, तभे ये राजिम मेला के दरसन लाभ ह पूरा छाहित होके मिलथे।

मेला चाहे कहूंचो के होवय, वोकर रूप ह बड़का होवय ते छोटका होवय। फेर जब तक वोमा ढेलवा, रहचुली अउ कुसियार के कोंवर-कोंवर डांग नइ दिखय तब तक मन नइ भरय। लोगन होत मुंदरहा मेला तीर के नंदिया-नरवा म नहा-धो के भगवान भोलेनाथ के पूजा-पाठ करथें। तेकर पाछू फेर चारों-मुड़ा कटाकट भराये मेला (बाजार) ल घूमथें- फिरथें। रंग-रंग के जिनिस बिसाथें। अउ जब मन भर के ढेलवा-रहचुली झूल लेथें, त फेर, कांदा, कुसियार, ओखरा झड़कत घर लहुटथें।
(फोटो-उदंती.काम, और गूगल महाराज से)

सुशील भोले 
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