Thursday 22 January 2015

छत्तीसगढ़ी लेखन म शब्द के चयन

छत्तीसगढ़ राज बने के बाद अउ खास करके छत्तीसगढ़ी ल ये राज म राजभाखा के दरजा मिले अउ छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के स्थापना होय के बाद छत्तीसगढ़ी लेखन ह भरदरागे हवय। अब उहू मन छत्तीसगढ़ी म लिखे बर धर लिए हें, जे मन कभू हमन ल संकीर्ण अउ राष्ट्रभाषाद्रोही होए के आरोप लगावत राहंय। फेर ये भरदराये लेखन म इहू देखब म आवत हवय के लोगन कतकों शब्द मनला बिगाड़ के या फेर आने-ताने शब्द के प्रयोग करके लिखत हावंय।

खास करके मोला अइसन देखे बर ए सेती मिलथे काबर ते मैं कई ठन पत्र-पत्रिका मन के संपादन के बुता म कोनो न कोनो किसम ले जुड़े रहिथंव। एकरे सेती जुन्ना साहित्यकार मन के संगे-संग नवा-नेवरिया मन के लेखन अउ उंकर शब्द चयन के पाला मोर संग परत रहिथे। अलग-अलग क्षेत्र के लोगन के अलग-अलग शब्द चयन संग घलोक मुठभेड़ होवत रहिथे। तब लागथे के अभी तक एकर मानक रूप के निर्धारण या पालन काबर नइ हो पाय हे, जेमा जम्मो क्षेत्र के लोगन एके किसम के शब्द मन के उपयोग कर लेतीन?

उदाहरण खातिर मैं अइसन मनखे के लिखे शब्द अउ वाक्य ल ए मेर रखना चाहत हंव, जेकर छत्तीसगढ़ के संगे-संग देश भर म एक भाषा-वैज्ञानिक के रूप म चिन्हारी हवय, अउ वो हें- डॉ. विनय कुमार पाठक जी। संगी हो, मैं कोनो नवा-नेवरिया लेखक के लिखे ल जान-बूझके उदाहरण के रूप म नइ रखना चाहंव, काबर ते वोकर लेखन म अंगरी उठाये के अबड़ अकन ठउर मिल सकत हे।

छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के प्रांतीय सम्मेलन 2014 के स्मारिका के पृष्ठ क्र. 10 म डॉ. विनय कुमार पाठक के एक लेख छपे हवय, शीर्षक हे- 'छत्तीसगढ़ के चिन्हारी : भाषा-साहित्य के जुबानी'। ये लेख के शुरुवात ल बने चेत लगाके पढ़व, काबर ते हम एकरे ऊपर चरचा करबो। लिखे गे हे- 'छत्तीसगढ़ी साहित्य भारतेंदु युग ले ओगर के आज के इक्कीसवीं सदी के चौदा बछर म हबरगे हे।' 

अब ये वाक्य ऊपर मोर दू-तीन ठन प्रश्न हवय, आपो मन जुवाब दे के कोशिश करहू। सबले पहला प्रश्न- छत्तीसगढ़ी साहित्य संग भारतेंदु के का संबंध हे? का हिंदी या खड़ी बोली के भारतेंदु के पहिली ले छत्तीसगढ़ी म लेखन होवत नइ आवत हे? हमर इहां लोक साहित्य के जेन खजाना हवय वो ये बात ल सिद्ध करथे के भारतेंदु के पहिली ले छत्तीसगढ़ी म लेखन होवत आवत हे।

हमर इहां के विद्वान मन छत्तीसगढ़ी साहित्य के पहला प्रयोग आज ले 600 साल पहिली सन् 1497 म चारण कवि बलराम राव खैरागढ़ वासी  ले करे के उदाहरण देथें-
लक्ष्मीनिधी राय सुनौ चित्त के गढ़ छत्तीसगढ़ न गढैय़ा रही
मरदूमी रही नहीं मरदन के फेर हिम्मत ले न लड़ैया रइही।। 

एकरो ले आगू बढिऩ त छत्तीसगढ़ी के जुन्ना रूप ल दंतेवाड़ा म सन् 1703 अउ वोकर कोरी भर पाछू आरंग के अभिलेख म घलोक देखे के बात कहे जाथे। संत कबीर के शिष्य अउ वोकर समकक्ष धनी धरमदास के 'जामुनिया के डार मोर टोर देव हो...' जइसन रचना मनला घलोक छत्तीसगढ़ी के जुन्ना रूप के उदाहरण खातिर देखाये जाथे। त फेर एला भारतेंदु युग ले ओगरे के बात काबर कहे जाथे? कहूं ये ह छत्तीसगढ़ी ल भारतेंदु माध्यम ले हिंदी के पिछलग्गू बनाय के प्रयास तो नोहय?

मोर दूसरा प्रश्न- 'छत्तीसगढ़ी साहित्य भारतेंदु युग ले 'ओगर' के...' का साहित्य या भाखा ह 'ओगरथे'? 'ओगरना' शब्द ल हमन पानी खातिर प्रयोग करत रेहे हावन के वो कुआं या झिरिया ले तुरते पानी 'ओगरे' ले धर लिस गा। फेर भाखा या साहित्य खातिर हम कभू 'ओगरे' शब्द के प्रयोग न सुने रेहेन न करे रेहेन। हां भई, भाखा या साहित्य ह 'उद्गरथे' वोकर जनम होथे, उत्पत्ति होथे।

मोर तीसरा प्रश्न- 'छत्तीसगढ़ी साहित्य..... आज के इक्कीसवीं सदी के चौदा बछर म हबरगे हे।' सुरता रखव- 'हबरगे हे'। मोला लागथे के इहां 'हबरगे' शब्द ह वतका अच्छा नइ लागत हे, जतका 'संघरगे' जइसे कोनो शब्द लिखे जातीस। बिलासपुर अउ रायगढ़ क्षेत्र म पहुंचे खातिर 'हबरना' शब्द के प्रयोग करे जाथे, फेर रायपुर अउ दुरुग क्षेत्र म 'हबरना' ल टकराये खातिर उपयोग म लाये जाथे। बेलसपुरिहा मन तो कहिथें के- 'लट्टे-पट्टे टेसन हबरेंव रे ददा, नइते गाड़ी छूट जाये रहितीस।' फेर रइपुरिहा मन इही 'हबरे' शब्द के प्रयोग अइसे करथें- 'लट्टे-पट्टे बांचेंव रे ददा कोठ म हबरगे रेहेंव, मुड़-कान फूट जातीस।'

मोला जिहां तक थोक-मोक जानकारी हे तेकर अनुसार रायपुर-दुरुग के छत्तीसगढ़ी ल ही गुनिक मनखे मन मानक रूप म अपनाये के गोठ करथें। डॉ. विनय कुमार पाठक के छवि एक भाषा-वैज्ञानिक के हवय त उंकर ले अइसन शब्द प्रयोग के आशा करे जाथे, जेला चारोंखुंट स्वीकारे जाय।

इही सरलग म मोला स्व. हरि ठाकुर के एक ठन कविता के सुरता आवत हे। उन जाड़ के महीना के संदर्भ म लिखथें-
ताम-कलस अस बाल सुरुज हर
क्षितिज ऊपर मडिय़ावत हे।
फरिका मन जम्हावत हें
बछरू मन रम्भावत हें।।

कतेक सुघ्घर दृश्य अउ कल्पना। फेर एमा शब्द मन के प्रयोग देखव- बाल सुरुज क्षितिज ऊपर 'मडिय़ावत' हे। जाड़ के दिन म उत्ती बेरा के सुरुज के प्रयोग उछाह-मंगल, रउनिया तापे जइसे म होथे। वो ह 'मडिय़ावय' नहीं। बइला-भइंसा या घेक्खर मनखे मन मडिय़ाथें। सुरुज तो निरंतर रेंगे के प्रतीक आय। अब इही कविता के आगू के डांड़ म चलव- 'फरिका मन जम्हावत हें, बछरू मन रम्भावत हें'। रंभाना शब्द के प्रयोग गाय खातिर जरूर करे जाथे, फेर बछरू खातिर कभू नइ करे जाय। बछरू मन नरियाथें, रंभावय नहीं।

संगवारी हो, ए ह छोटकुन उदाहरण आय के छत्तीसगढ़ी लेखन ल बने चेत लगा के करे जाय। छत्तीसगढ़ी के नांव म कुछ भी नइ लिखे जाना चाही। एकर ले हमर भाखा-साहित्य के हिनमान होये के संभावना रहिथे। मोर वोकरो मनले अरजी हे, जेमन शब्द ल बिगाड़ के लिखत रहिथें। जइसे संस्कृति ल संसकिरिति, शब्द ल सब्द, सुशील ल सुसील, ऋषि ल रिसि आदि-आदि। मैं ये सिद्धांत के पोषक आंव के हमन जब लेखन खातिर नागरी लिपि ल आत्मसात करे हावन त वोकर जम्मो शब्द (अक्षर / वर्ण) मनके प्रयोग ल घलोक करन। वोमा कोनो किसम के छेका-बांधा झन करन।

सुशील भोले 
म.नं. 54-191, डॉ. बघेल गली,
संजय नगर (टिकरापारा) रायपुर (छ.ग.)
मोबा. नं. 080853-05931, 098269-92811
ईमेल -  sushilbhole2@gmail.com
   

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