Wednesday 23 September 2015

सरकारी आयोजन बनकर रह गया सर्व पिछड़ा वर्ग सम्मेलन

* पिछड़ों के विकास और अधिकार की बात तक नहीं हुई
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सर्व पिछड़ा वर्ग महासभा के पदाधिकारियों के सम्मेलन में अधिकार और उनसे जुड़े नीतिगत मुद्दों को छोड़कर अन्य ऐसी बातों पर चर्चा हो जिनके कारण पिछड़ों के विकास और अधिकार बाधित होते रहे हों तो उसे क्या कहा जायेगा? यह प्रश्नचिन्ह बीते 20 सितम्बर को राजधानी रायपुर के शहीद स्मारक भवन में सम्पन सर्व पिछड़ा वर्ग महासभा के पदाधिकारियों के महासम्मेलन में उभरकर आया।

कार्यक्रम के प्रारंभ से ही यह अहसास होने लगा था कि यह आयोजन पूर्णत: प्रायोजित है। जिसे उन लोगों के द्वारा आयोजित करवाया जा रहा है जो लोग समस्त मानव समाज में असमानता के बीज बोएं हैं और समता और समरसता की बात भी वे ही करते हैं।

छत्तीसगढ़ राज्य में जहां पिछड़ों को आरक्षण के लिए निर्धारित 27 प्रतिशत कोटा का पालन नहीं किया जाता इस पर किसी भी बड़े वक्ता ने एक शब्द तक नहीं कहा। पिछड़ों की शिक्षा, उनकी संस्कृति और स्वतंत्र धार्मिक पहचान की कहीं कोई चर्चा नहीं हुई। अलबत्ता वृन्दावन से एक ऐसे संत को लाकर पिछड़ों के मस्तक पर बैठाने का उपक्रम रचा गया जो वास्तव में पिछड़ों के पिछडऩे का मूल कारण वर्ण व्यवस्था की सरेआम सराहना कर रहा था। लोगों को उस सड़ी-गली व्यवस्था का अनुपालन करने को प्रेरित कर रहा था।

आश्चर्य तब हुआ जब पिछड़ा वर्ग के एक बड़े नेता जो एक बड़ी पार्टी के मुखौटा बने हुए हैं उन्होंने अपने उद्बोधन में कहा कि मजबूत पेड़ का आश्रय लेकर एक बेल भी उसकी ऊंचाई को छूने और उससे आगे निकलने का प्रयास कर लेती है। इसलिए हमें भी उसका परिपालन करना चाहिए।

वास्तव में उनके उद्बोधन का सार यह होना चाहिए था कि हम कब तक बेल की तरह दूसरे के आश्रय पर जीवित रहेंगे। हमें बेल या लता नहीं अपितु मूसलाजड़ों से जमीन की गहराईयों को नापने वाला विशाल वृक्ष बनना चाहिए।

देश की उच्च सदन को प्रतिनिधित्व देने वाले प्रदेश के दो अलग-अलग वर्गों से आने वाले महानुभवों ने अवश्य शोषित समाज के साथ ही साथ सम्पूर्ण छत्तीसगढिय़ा समाज के अधिकार और राज्य निर्माण के उद्देश्य एवं उसकी आज की स्थिति पर अपना उद्बोधन देकर मूलनिवासियों को राहत पहुंचाने का काम किया।

छत्तीसगढ़ में पिछड़ा वर्ग में आने वाले 84 विभिन्न समाजों को जोड़ लेेने का दावा करने वालों के इस आयोजन में उपस्थिति को देखकर किसी भी वक्ता ने सराहना नहीं की। अलबत्ता कार्यक्रम का संचालन एक गैर पिछड़ावर्गीय द्वारा किये जाने को लेकर अवश्य प्रश्न दागे गये। उंगलियां उस पर भी उठीं, जब पिछड़ा वर्ग के कई प्रतिष्ठितजनों को आयोजन का आमंत्रण भी नहीं दिया गया और शोषक कहे जाने वाले समाज के लोग वहां वक्ता और अतिथि के रूप में सम्मानित होते रहे।

मजेदार बात यह है कि ऐसे श्रवण वर्गीय आमंत्रित वक्ता केवल सामाजिक समरसता की बात करते रहें। जबकि यह सर्वविदित है कि समूचे मानव समाज में वर्ण व्यवस्था और ऊंच-नीच के नाम पर इन्हीं लोगों ने असमानता के बीज बोए हैं।

आज की आवश्यकता यह है कि पिछड़ों को उनकी मूल संस्कृति और अस्मिता की पहचान कराई जाए। सर्वोच्च न्यायालय ने पिछड़ा वर्ग के निर्धारण के समय यह बात स्पष्ट रूप से रेखांकित किया है कि पिछड़ा वर्ग का चिन्हांकन केवल आरक्षण देने के लिए नहीं किया जा रहा है, अपितु इस वर्ग की अपनी मौलिक संस्कृति एवं धार्मिक पहचान है, जो कि सवर्णों से अलग है। उस स्वतंत्र पहचान को कायम रखने के लिए पिछड़ा वर्ग का निर्धारण आवश्यक है। छत्तीसगढ़ के संदर्भ में यहां के मैदानी भाग में प्रचलित मूल संस्कृति को पिछड़ों की अपनी मौलिक संस्कृति के रूप में चिन्हित किया जा सकता है।

एक प्रश्न जो हमेशा मन में कौंधता है कि क्या हम अपने कुल देवता की ी वैसी ही पूजा करते हैं, जैसा कि हमारे घर में पूजा करवाने वाला पुरोहित अपने साथ थैला में भरकर लाने वाले देवता की पूजा करवाता है? प्रश्न यह भी है कि हमारे र में खुशहाली कब आयेगी? पुरोहित के द्वारा लाने वाले भगवान की पूजा करके या हमारे कुल देवता की पूजा-आराधना करके? आप देख रहे हैं, ऐसी पूजा से कौन खुशहाल हो रहे हैं? निश्चित रूप से पिछड़ों को, अपितु समस्त मूल निवासी समुदाय को लोगों को अपने कुल देवता की पूजा और उत्सव का रिवाज प्रारंभ करना चाहिए तभी उनका भी जीवन खुशहाल होगा।

बड़े-बड़े संतों और महापुरुषों का यह कथन है कि किसी भी व्यक्ति या समाज के गौरव का मुख्य कारण उसकी अपनी संस्कृति और मौलिक पहचान होती है। दु:खद है कि यहां के पिछड़ों में अपनी मौलिक पहचान की न तो कोई समझ दिखाई देती है, और न ही उसे बचाए रखने के लिए कोई ललक। ऐसे में यह प्रश्न अवश्य उपस्थित हो जाता है कि ऐसे आयोजन किनके लिए और किस उद्देश्य से किए जाते हैं?

20 सितंबर को ही सर्व पिछड़ा वर्ग की ही तरह इसी रायपुर में सर्व आदिवासी समाज का भी आयोजन रखा गया था। इन दोनों ही आयोजनों में एक बात जो समान रूप से देखी गई, वह है दोनों ही मंचों पर पहली बार चंदन से तिलक लगाकर अतिथियों का स्वागत करना। जबकि यह सभी जानते हैं कि पिछड़ा वर्ग या आदिवासी समाज में ऐसी कोई परंपरा नहीं है, जिसमें चंदन लगाकर अतिथियों का स्वागत किया जाये। यह परंपरा सवर्णों और उसमें भी खासकर एक समूह विशेष की परंपरा है, जिसे हम इस देश में आर.एस.एस. की नकेल थामे रखने वालों के रूप में भी जानते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि इस तरह के सामाजिक आयोजनों के पीछे कैसे तत्व हैं, और उनका उद्देश्य क्या है?

सर्व पिछड़ा वर्ग महासम्मेलन के मंच पर जिन लोगों की बहुतायत में उपस्थिति थी, वे एक ही जातीय समाज और एक क्षेत्र विशेष के लोग ही थे। मजेदार बात यह है कि कार्यक्रम स्थल पर राजधानी रायपुर के साथ ही साथ इसके आस-पास के लोगों की उपस्थिति नगण्य थी, जिसके कारण इसमें संपूर्ण समाज की भागीदारी  कहीं भी दिखाई नहीं दे रही थी। निश्चित रूप से ऐसे आयोजनों पर प्रश्न चिन्ह अंकित होना लाजिमी है।

सुशील भोले 
संजय नगर, रायपुर (छ.ग.)
मो.नं. 080853-05931, 098269-92811
ई-मेल - sushilbhole2@gmail.com
 

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