Friday 27 May 2016

छत्तीसगढ़ी लेखन म शब्द के चयन

छत्तीसगढ़ राज बने के बाद अउ खास करके छत्तीसगढ़ी ल ये राज म राजभाखा के दरजा मिले अउ छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के स्थापना होय के बाद छत्तीसगढ़ी लेखन ह भरदरागे हवय। अब उहू मन छत्तीसगढ़ी म लिखे बर धर लिए हें, जे मन कभू हमन ल संकीर्ण अउ राष्ट्रभाषाद्रोही होए के आरोप लगावत राहंय। फेर ये भरदराये लेखन म इहू देखब म आवत हवय के लोगन कतकों शब्द मनला बिगाड़ के या फेर आने-ताने लिखत हावंय।

खास करके मोला अइसन देखे बर ए सेती मिलथे काबर ते मैं कई ठन पत्र-पत्रिका मन के संपादन के बुता म कोनो न कोनो किसम ले जुड़े रहिथंव। एकरे सेती जुन्ना साहित्यकार मन के संगे-संग नवा-नेवरिया मन के लेखन अउ उंकर शब्द चयन के पाला मोर संग परत रहिथे। अलग-अलग क्षेत्र के लोगन के अलग-अलग शब्द चयन संग घलोक मुठभेड़ होवत रहिथे। तब लागथे के अभी तक एकर मानक रूप के निर्धारण या पालन काबर नइ हो पाय हे, जेमा जम्मो क्षेत्र के लोगन एके किसम के शब्द मन के उपयोग कर लेतीन?

उदाहरण खातिर मैं अइसन मनखे के लिखे शब्द अउ वाक्य ल ए मेर रखना चाहत हंव, जेकर छत्तीसगढ़ के संगे-संग देश भर म एक भाषा-वैज्ञानिक के रूप म चिन्हारी हवय, अउ वो हें- डॉ. विनय कुमार पाठक। संगी हो, मैं कोनो नवा-नेवरिया लेखक के लिखे ल जान-बूझके उदाहरण के रूप म नइ रखना चाहंव, काबर ते वोकर लेखन म अंगरी उठाये के अबड़ अकन ठउर मिल सकत हे।

छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के प्रांतीय सम्मेलन 2014 के स्मारिका के पृष्ठ क्र. 10 म डॉ. विनय कुमार पाठक के एक लेख छपे हे, शीर्षक हे- 'छत्तीसगढ़ के चिन्हारी : भाषा-साहित्य के जुबानी"। ये लेख के शुरुवात ल बने चेत लगाके पढ़व, काबर ते हम एकरे ऊपर चरचा करबो। लिखे गे हे- 'छत्तीसगढ़ी साहित्य भारतेंदु युग ले ओगर के आज के इक्कीसवीं सदी के चौदा बछर म हबरगे हे।"

अब ये वाक्य ऊपर मोर दू-तीन ठन प्रश्न हवय, आपो मन जुवाब दे के कोशिश करहू। सबले पहला प्रश्न- छत्तीसगढ़ी साहित्य संग भारतेंदु के का संबंध हे? का हिंदी या खड़ी बोली के भारतेंदु के पहिली ले छत्तीसगढ़ी म लेखन होवत नइ आवत हे? हमर इहां लोक साहित्य के जेन खजाना हवय वो ये बात ल सिद्ध करथे के भारतेंदु के पहिली ले छत्तीसगढ़ी म लेखन होवत आवत हे। लोक साहित्य के अथाह खजाना दू-चार बछर म नइ सिरज जाय, एकर बर हजारों साल के लंबा दौर ले गुजरना होथे।

हमर इहां के विद्वान मन छत्तीसगढ़ी के पहला प्रयोग आज ले 600 साल पहिली सन् 1497 म चारण कवि बलराम राव खैरागढ़ वासी  ले करे के उदाहरण देथें-
लक्ष्मीनिधी राय सुनौ चित्त के गढ़ छत्तीसगढ़ न गढैय़ा रही
मरदूमी रही नहीं मरदन के फेर हिम्मत ले न लड़ैया रइही।।
एकरो ले आगू बढिऩ त छत्तीसगढ़ी के जुन्ना रूप ल दंतेवाड़ा म सन् 1703 अउ वोकर कोरी भर पाछू आरंग के अभिलेख म घलोक देखे के बात कहे जाथे। संत कबीर के शिष्य अउ वोकर समकक्ष धनी धरमदास के 'जामुनिया के डार मोर टोर देव हो...Ó जइसन रचना मनला घलोक छत्तीसगढ़ी के जुन्ना रूप के उदाहरण खातिर देखाये जाथे। त फेर एला भारतेंदु युग ले ओगरे के बात काबर कहे जाथे? कहूं ये ह छत्तीसगढ़ी ल भारतेंदु माध्यम ले हिंदी के पिछलग्गू बनाय के प्रयास तो नोहय?

मोर दूसरा प्रश्न- 'छत्तीसगढ़ी साहित्य भारतेंदु युग ले 'ओगर" के..." का साहित्य या भाखा ह 'ओगरथे"? ओगरना, पझरना, निथरना, बोहाना जइसन शब्द ल हमन कोनो तरल पदार्थ, जइसे- पानी या पछीना खातिर प्रयोग करत रेहे हावन के वो कुआं या झिरिया ले तुरते पानी 'ओगरे" ले धर लिस गा। फेर भाखा या साहित्य खातिर हम कभू 'ओगरे" शब्द के प्रयोग न सुने रेहेन न करे रेहेन। का कोनो फलाना घर लइका ओगरे हे कहि देही त हमन मान लेबो? हर शब्द के प्रयोग के अपन मरजाद हे, वोला वोकरे अंतर्गत करे म सुहाथे।  जिहां तक भाखा या साहित्य के बात हे, त एकर खातिर 'उद्गरथे" शब्द के उपयोग ह जादा अच्छा लाग सकथे। काबर भाखा या साहित्य के जनम होथे, उत्पत्ति होथे। वो उद्गरथे।

मोर तीसरा प्रश्न- 'छत्तीसगढ़ी साहित्य..... आज के इक्कीसवीं सदी के चौदा बछर म हबरगे हे।" सुरता रखव- 'हबरगे हे"। मोला लागथे के इहां 'हबरगे" शब्द ह वतका अच्छा नइ लागत हे, जतका 'संघरगे" जइसे कोनो शब्द ए जगा लिखे जातीस। बिलासपुर अउ रायगढ़ क्षेत्र म पहुंचे खातिर 'हबरना" शब्द के प्रयोग करे जाथे, फेर रायपुर अउ दुरुग क्षेत्र म 'हबरना" शब्द ल ए रूप म स्वीकार नइ करे जाय।

मोला जिहां तक थोक-मोक जानकारी हे तेकर अनुसार रायपुर-दुरुग के छत्तीसगढ़ी ल ही गुनिक मनखे मन मानक रूप म अपनाये के गोठ करथें। वइसे भी कोनो भी भाषा के मानक रूप वो क्षेत्र या राज के राजधानी के भाषा ल मानक रूप माने जाथे। जिहां तक भाषा के मिठास के बात हे, त पूरा छत्तीसगढ़ के हर क्षेत्र के भाषा, शब्द अउ उच्चारण गुरतुर हे। तभो ले मानक रूप तो राजधानी के ही भाषा ल माने जाही। डॉ. विनय कुमार पाठक के छवि एक भाषा-वैज्ञानिक के हवय त उंकर ले अइसन शब्द प्रयोग के आशा करे जाथे, जेला चारोंखुंट स्वीकारे जाय।

आजकल दू गोडिय़ा, चरगोडिय़ा जइसन शब्द के प्रयोग दोहा अउ मुक्तक शैली के पद्य लेखन खातिर करे जावत हे, एहू ह मोला बने नइ लागय। हमर इहां लोक परंपरा म दू गोडिय़ा, चरगोडिय़ा जइसे शब्द मन के प्रयोग जानवर मन खातिर करे जाथे। कविता के कोनो रूप खातिर नहीं। हमर इहां लाईन या पंक्ति खातिर डांड़ शब्द के प्रयोग करे जाथे, त अइसन रचना मनला दू डांड़, चार डांड़ काबर नइ कहे जाय?

कोनो-कोनो संगी मन धन्यवाद के छत्तीसगढ़ी अनुवाद पूछथें, कोनो स्वागत हे के विकल्प पूछथे, त मोला बड़ा अचरज लागथे। हमन ल इहां ेए बात जानना जादा जरूरी हे संगी हो, के छत्तीसगढ़ी लेखन खातिर पहिली इहां के संस्कृति, परंपरा, लोकाचार अउ लोकव्यवहार ल जानना जादा जरूरी हे। तभे लेखन म छत्तीसगढ़ी के आत्मा दिखही। नइते फर्जी  भाषा वैज्ञानिक मन के चक्कर म छत्तीसगढ़ी लेखन छदर-बदर हो जाही।

धन्यवाद काबर दिए जाथे? हमर खातिर कोनो अच्छा बुता करथे तब ना? फेर छत्तीसगढ़ी म जुच्छा धन्यवाद कहे के परंपरा नइए, भलुक हमर इहां एकर बदला म शुभकामना दे के परंपरा हे। जब कोनो हमर हित के काम करथे, त हम वोला सिरिफ धन्यवाद कहिके नइ टरका देवन, भलुक वोकर बदला, बने करे बाबू, भगवान तोर भला करे जइसे  शब्द के माध्यम ले शुभकामना देथन। अइसने स्वागत शब्द के बात हे। त हमर इहां जब कोनो हमर घर आथे त वोला जुच्छा आना गा तोर स्वागत हे नइ कहे जाय, भलुक हमर इहां जोहार करे जाथे। जोहार संग भेंट शब्द के प्रयोग करे जाथे। एला जोहार-भेंट करना कहिथन।  

संगवारी हो, ए ह छोटकुन उदाहरण आय के छत्तीसगढ़ी लेखन ल बने चेत लगा के करे जाय। छत्तीसगढ़ी के नांव म कुछ भी नइ लिखे जाना चाही। एकर ले हमर भाखा-साहित्य के हिनमान होये के संभावना रहिथे। मोर वोकरो मनले अरजी हे, जेमन शब्द ल बिगाड़ के लिखत रहिथें। जइसे संस्कृति ल संसकिरिति, शब्द ल सब्द, सुशील ल सुसील, ऋषि ल रिसि आदि-आदि। मैं ये सिद्धांत के पोषक आंव के हमन जब लेखन खातिर नागरी लिपि ल आत्मसात करे हावन त वोकर जम्मो शब्द (अक्षर / वर्ण) मनके प्रयोग ल घलोक करन। वोमा कोनो किसम के छेका-बांधा झन करन।

सुशील भोले 
म.नं. 41-191, डॉ. बघेल गली,
संजय नगर (टिकरापारा) रायपुर (छ.ग.)
मोबा. नं. 98269-92811, 80853-05931


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