Saturday 29 December 2018

संस्कृति और सम्मान......

संस्कृति और सम्मान......
हमारी संस्कृति दुनिया की हर संस्कृति और  सभ्यता का  सम्मान करना सिखाती है, इसीलिए "वसुधैव कुटुम्बकम" के माध्यम से पूरे विश्व को अपना परिवार मानने की शिक्षा दी जाती है। इसके इतर, जो लोग अन्य संस्कृति, परंपरा या सभ्यता का सम्मान करने के बजाय उसके विपरित विष वमन करते हैं, ऐसे लोग कदापि धर्म के जानकार या रक्षक नहीं हो सकते। ऐसे लोगों को मूर्ख और उससे भी बढकर धूर्त कहा जाना उचित होगा। साथ ही यह भी उचित होगा कि ऐसे लोगों की बातों की उपेक्षा की जाए, उन्हें अमान्य किया जाए।
-सुशील भोले
अध्यक्ष, आदि धर्म जागृति संस्थान
संजय नगर, रायपुर
मो नं 9826992811

Friday 28 December 2018

नये संस्कृति मंत्री श्री ताम्रध्वज साहू से अपेक्षा.....

छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति की उपेक्षा और नये संस्कृति मंत्री से अपेक्षा...
प्रति,
श्री ताम्रध्वज साहू जी,
संस्कृति मंत्री, छत्तीसगढ़ शासन

महोदय,
छत्तीसगढ़ राज्य का निर्माण हुए दो दशक से होने जा रहा है, लेकिन अभी भी यहां की मूल-संस्कृति की स्वतंत्र पहचान नहीं बन पायी है। आज भी जब छत्तीसगढ़ की संस्कृति की बात होती है, तो अन्य प्रदेशों से लाये गये ग्रंथों के मापदण्ड पर इसे परिभाषित कर दिया जाता है।

आप तो इस बात से अच्छी तरह से वाकिफ हैं कि किसी भी प्रदेश की संस्कृति का मानक वहां के मूल निवासियों की संस्कृति होती है, न कि अन्य प्रदेशों से आये हुए लोगों की संस्कृति। लेकिन यह छत्तीसगढ़ का दुर्भाग्य है कि यहां आज भी मूल-निवासियों की संस्कृति को दरकिनार कर अन्य प्रदेशों की संस्कृति को छत्तीसगढ़ की संस्कृति के रूप में चिन्हित किया जा रहा है।

आप इस बात से भी वाकिफ हैं कि यहां का मूल निवासी समाज सदियों तक शिक्षा की रोशनी से काफी दूर रहा है, जिसके कारण वह अपनी संस्कृति और इतिहास को लिखित रूप नहीं दे पाया। परिणाम स्वरूप अन्य प्रदेशों से आये हुए लोग यहां की संस्कृति और इतिहास को लिखने लगे।

लेकिन यहां पर एक गलती यह हुई कि वे यहां की मूल-संस्कृति और इतिहास को वास्तविक रूप में लिखने के बजाय अपने साथ अन्य प्रदेशों से लाये गये ग्रंथों और संस्कृति के साथ घालमेल कर लिखने लगे। यही मूल कारण है, जिसके कारण छत्तीसगढ़ की मूल-संस्कृति और इतिहास का स्वतंत्र और वास्तविक रूप आज तक लोगों के समक्ष नहीं आ सका है।

यहां पर यह जान लेना भी आवश्यक है कि कला और संस्कृति दो अलग-अलग चीजें हैं। इसे इसलिए अलग-अलग चिन्हित किया जाना आवश्यक है, क्योंकि छत्तीसगढ़ी संस्कृति के नाम पर यहां की कुछ कला को और कला-मंडलियों को उपकृत कर संपूर्ण छत्तीसगढ़ी संस्कृति को कृतार्थ कर लेने का कर्तव्य पूर्ण हो जाना मान लिया जाता है।

कला और संस्कृति के मूल अंतर को समझने के लिए हम यह कह सकते हैं कि मंच के माध्यम से जो प्रदर्शन किया जाता है वह कला है, और जिन्हें हम पर्वों एवं संस्कार के रूप में जीते हैं वह संस्कृति है।
आप यहां के मूल-निवासी समाज के हैं, इसलिए यहां की पीड़ा को अच्छी तरह से जानते और समझते हैं। इसीलिए आपसे अपेक्षा भी ज्यादा की जा रही है, कि आप इस दिशा में ठोस कदम उठायेंगे और छत्तीसगढ़ को उसकी मूल-सांस्कृतिक पहचान से गर्वान्वित करेंगे।

मुझे लगता है कि यहां की मूल-संस्कृति की तार्किक रूप से संक्षिप्त चर्चा कर लेना भी आवश्यक है।
वास्तव में छत्तीसगढ़ की संस्कृति एक मौलिक संस्कृति है, जिसे हम सृष्टिकाल की या युग निर्धारण के मानक पर कहें तो सतयुग की संस्कृति कह सकते हैं। यहां पर कई ऐसे पर्व और संस्कार हैं, जिन्हें इस देश के किसी अन्य अंचल में नहीं जिया जाता। ऐसे ही कई ऐसे भी पर्व हैं, जिन्हें आज उसके मूल स्वरूप से परिवर्तित कर किसी अन्य घटना के साथ जोड़कर प्रचारित किया जा रहा है। आइए कुछ ऐसे ही दृश्यों पर तार्किक चर्चा कर लें।

सबसे पहले उस बहुप्रचारित व्यवस्था पर, जिसे हम चातुर्मास के नाम पर जानते हैं। ऐसा कहा जाता है कि चातुर्मास (आषाढ़ शुक्ल पक्ष एकादशी से लेकर कार्तिक शुक्ल पक्ष एकादशी तक) में देवता सो जाते हैं, (कुछ लोग इसे योग निद्रा कहकर बचने का प्रयास करते हैं।) इसलिए इन चारों महीनों में किसी भी प्रकार का मांगलिक कार्य नहीं करना चाहिए। अब छत्तीसगढ़ के संदर्भ में देखें, तो यह व्यवस्था यहां लागू ही नहीं होती। यहां चातुर्मास पूर्ण होने के दस दिन पहले ही ईसर देव और गौरा का विवाह पर्व 'गौरा-गौरी उत्स, के रूप में मनाया जाता है। अब जब भगवान की ही शादी देवउठनी से पहले हो जाती है, तो फिर उनके सोने (शयन करना) या फिर इन महीनों को मांगलिक कार्यों के लिए किसी भी प्रकार से अशुभ मानने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। बल्कि यहां पर यह कहना ज्यादा अच्छा होगा कि छत्तीसगढ़ की संस्कृति में चातुर्मास के इन चारों महीनों को ही सबसे ज्यादा शुभ और पवित्र माना जाता है, क्योंकि इन्हीं चारों महीनों में यहां के सभी प्रमुख पर्व संपन्न होते हैं।

श्रावण अमावस्या को मनाए जाने वाले पर्व 'हरेली" से लेकर देखें तो इस महीने की शुक्ल पक्ष पंचमी को 'नागपंचमी" तथा पूर्णिमा को 'शिव लिंग प्राकट्य" दिवस के रूप में मनाया जाता है। भादो मास में कृष्ण पक्ष षष्ठी को स्वामी कार्तिकेय का जन्मोत्सव पर्व 'कमर छठ" के रूप में, अमावस्या तिथि को नंदीश्वर का जन्मोत्सव 'पोला" के रूप में, शुक्ल पक्ष तृतीया को देवी पार्वती द्वारा भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए किए गए कठोर तप के प्रतीक स्वरूप मनाया जाने वाला पर्व 'तीजा" तथा चतुर्थी तिथि को विघ्नहर्ता और देव मंडल के प्रथम पूज्य भगवान गणेश का जन्मोत्सव पर्व।

क्वांर मास का कृष्ण पक्ष हमारी संस्कृति में स्वर्गवासी हो चुके पूर्वजों के स्मरण के लिए मातृ एवं पितृ पक्ष के रूप में मनाया जाता है। शुक्ल पक्ष माता पार्वती (आदि शक्ति) के जन्मोत्सव का पर्व नवरात्र के रूप में (यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि यहां की संस्कृति में वर्ष में दो बार जो नवरात्र मनाया जाता है, उसका कारण आदि शक्ति के दो बार अवतरण को कारण माना जाता है। प्रथम बार वे सती के रूप में आयी थीं और दूसरी बार पार्वती के रूप में। सती के रूप में चैत्र मास में तथा पार्वती के रूप में क्वांर मास में)। क्वांर शुक्ल पक्ष दशमीं तिथि को समुद्र मंथन से निकले विष का हरण पर्व दंसहरा (दशहरा) के रूप में मनाया जाता है। (बस्तर में इस अवसर पर जो रथयात्रा का आयोजन किया जाता है, वह वास्तव में मंदराचल पर्वत के माध्यम से समुद्र मंथन का पर्व है। आगे इसकी विस्तृत चर्चा करेंगे)। तथा विष हरण के पांच दिनों के बाद क्वांर पूर्णिमा को अमृत प्राप्ति का पर्व 'शरद पूर्णिमा" के रूप में मनाया जाता है।

इसी प्रकार कार्तिक मास में अमावस्या तिथि को मनाया जाने वाला ईसरदेव तथा गौरा का विवाह पर्व 'गौरा-गौरी उत्सव" में सम्मिलित होने के लिए लोगों को संदेश देने का आयोजन 'सुआ नृत्य" के रूप में किया जाता है, जो पूरे कृष्ण पक्ष में पंद्रह दिनों तक उत्सव के रूप में चलता है। इन पंद्रह दिनों में यहां की कुंवारी कन्याएं 'कार्तिक स्नान" का भी पर्व मनाती हैं। यहां की संस्कृति में मेला-मड़ई के रूप में मनाया जाने वाला उत्सव भी कार्तिक मास की पूर्णिमा तिथि से ही प्रारंभ होता है, जो भगवान शंकर के जटाधारी रूप में प्रागट्य होने के पर्व महाशिवरात्रि तक चलता है।

चातुर्मास के अंतर्गत हम 'दंसहरा" की चर्चा कर रहे थे। तो यहां यह जान लेना आवश्यक है दशहरा (वास्तव में दंस+हरा) और विजया दशमी दो अलग-अलग पर्व हैं। दशहरा या दंसहरा सृष्टिकाल के समय संपन्न हुए समुद्र मंथन से निकले दंस विष के हरण का पर्व है तो विजयी दशमी आततायी रावण पर भगवान राम के विजय का पर्व है। यहां के बस्तर में दशहरा के अवसर पर जो 'रथयात्रा" का पर्व मनाया जाता है, वह वास्तव में दंस+हरा अर्थात दंस (विष) हरण का पर्व है, जिसके कारण शिवजी को 'नीलकंठ" कहा गया। इसीलिए इस तिथि को नीलकंठ पक्षी (टेहर्रा चिरई) को देखना शुभ माना जाता है, क्योंकि इस दिन उसे विषपान करने वाले शिवजी का प्रतीक माना जाता है।

बस्तर के रथयात्रा को वर्तमान में कुछ परिवर्तित कर उसके कारण को अलग रूप में बताया जा रहा है, बिल्कुल वैसे ही जैसे राजिम के प्रसिद्ध पारंपरिक 'मेले" के स्वरूप को परिवर्तित कर 'कुंभ" का नाम देकर उसके स्वरूप और कारण को परिवर्तित कर दिया गया है। पहले दशहरा के अवसर पर प्रतिवर्ष नया रथ बनाया जाता था, जो कि मंदराचल पर्वत का प्रतीक होता था, क्योंकि मंदराचल पर्वत के माध्यम से ही समुद्र मंथन किया गया था। चूंकि मंदराचल पर्वत को मथने (आगे-पीछे खींचने) के कार्य को देवता और दानवों के द्वारा किया गया था, इसीलिए इस अवसर पर बस्तर क्षेत्र के सभी ग्राम देवताओं को इस दिन रथयात्रा स्थल पर लाया जाता था। उसके पश्चात रथ को आगे-पीछे खींचा जाता था, और जब आगे-पीछे खींचे जाने के कारण रथ टूट-फूट जाता था, तब विष निकलने का दृश्यि उपस्थित करने के लिए उस रथ को खींचने वाले लोग इधर-उधर भाग जाते थे। बाद में जब वे पुन: एकत्रित होते थे, तब उन्हें विष वितरण के रूप में दोने में मंद (शराब) दिया जाता था।

इस बात से प्राय: सभी परिचित हैं कि समुद्र मंथन से निकले 'विष" के हरण के पांच दिनों के पश्चात 'अमृत" की प्राप्ति हुई थी। इसीलिए हम लोग आज भी दंसहरा तिथि के पांच दिनों के पश्चात अमृत प्राप्ति का पर्व 'शरद पूर्णिमा" के रूप में मनाते हैं।

यहां के मूल पर्व को किसी अन्य घटना के साथ जोड़कर लिखे जाने के संदर्भ में हम 'होली" को उदाहरण के रूप में ले सकते हैं। छत्तीसगढ़ में जो होली मनाई जाती है वह वास्तव में 'काम दहन" का पर्व है, न कि 'होलिका दहन" का। यह काम दहन का पर्व है, इसीलिए इसे मदनोत्सव या वसंतोत्सव के रूप में भी स्मरण किया जाता है, जिसे माघ महीने की शुक्ल पक्ष पंचमी तिथि से लेकर फाल्गुन मास की पूर्णिमा तिथि तक लगभग चालीस दिनों तक मनाया जाता है।

सती आत्मदाह के पश्चात तपस्यारत शिव के पास आततायी असुर के संहार के लिए शिव-पुत्र प्राप्ति हेतु देवताओं द्वारा कामदेव को भेजा जाता है, ताकि उसके (शिव) अंदर काम वासना का उदय हो और वे पार्वती के साथ विवाह करें, जिससे शिव-पुत्र के हाथों मरने का वरदान प्राप्त असुर के संहार के लिए शिव-पुत्र (कार्तिकेय) की प्राप्ति हो। देवमंडल के अनुरोध पर कामदेव बसंत के मादकता भरे मौसम का चयन कर अपनी पत्नी रति के साथ माघु शुक्ल पक्ष पंचमीं को तपस्यारत शिव के सम्मुख जाता है। उसके पश्चात वासनात्मक शब्दों, दृश्यों और नृत्यों के माध्यम से शिव-तपस्या भंग करने की कोशिश की जाती है, जो फाल्गुन पूर्णिमा को शिव द्वारा अपना तीसरा नेत्र खोलकर उसे (कामदेव को) भस्म करने तक चलती है।

छत्तीसगढ़ में बसंत पंचमी (माघ शुक्ल पंचमी) को काम दहन स्थल पर अंडा (अरंडी) नामक पेड़  गड़ाया जाता है, वह वास्तव में कामदेव के आगमन का प्रतीक स्वरूप होता है। इसके साथ ही यहां वासनात्मक शब्दों, दृश्यों और नृत्यों के माध्यम से मदनोत्सव का सिलसिला प्रारंभ हो जाता है। इस अवसर पर पहले यहां 'किसबीन नाच" की भी प्रथा थी, जिसे रति नृत्य के प्रतीक स्वरूप आयोजित किया जाता था। 'होलिका दहन" का संबंध छत्तीसगढ़ में मनाए जाने वाले पर्व के साथ कहीं पर भी दृष्टिगोचर नहीं होता। होलिका तो केवल एक ही दिन में चिता रचवाकर उसमें आग लगवाती है, और उस आग में स्वयं जलकर भस्म हो जाती है, तब भला उसके लिए चालीस दिनों का पर्व मनाने का सवाल ही कहां पैदा होता है? और फिर वासनात्मक शब्दों, दृश्यों और गीत-नृत्यों का होलिका से क्या संबंध है?

मूल संस्कृति की चर्चा करते हुए कुछ बातें यहां के इतिहास लेखन की भी हो जाए तो बेहतर होगा, क्योंकि यहां की मूल संस्कृति के नाम पर अभी तक हम सृष्टिकाल या कहें कि सतयुग की संस्कृति की चर्चा करते आए हैं तो फिर प्रश्न उठता है कि छत्तीसगढ़ के इतिहास को केवल रामायण और महाभारत कालीन ही क्यों कहा जाता है? इसे सतयुग या सृष्टिकाल तक विस्तारित क्यों नहीं कहा जाता?

मुझे ऐसा लगता है कि इन सबका एकमात्र कारण है, उनके द्वारा मानक स्रोत का गलत चयन। वे जिन ग्रंथों को यहां के इतिहास एवं संस्कृति के मानक के रूप में उद्घृत करते हैं, वास्तव में उन्हें छत्तीसगढ़ के मापदंड पर लिखा ही नहीं गया है। इस बात से तो सभी परिचित हैं कि यहां के मूल निवासी शिक्षा के प्रकाश से कोसों दूर थे, इसलिए वे अपनी संस्कृति और इतिहास को लिखित स्वरूप नहीं दे पाए। इसलिए जब अन्य प्रदेशों से यहां आकर बस जाने वाले लोगों ने यहां के इतिहास और संस्कृति को लिखित रूप देना प्रारंभ किया तो वे अपने साथ अपने मूल प्रदेशों से लाए गए ग्रंथों और संस्कृति को मानक मानकर 'छत्तीसगढ़" को परिभाषित करने लगे।

आज उस लिखित स्वरूप और यहां की मूल (अलिखित) स्वरूप में जो अंतर दिखाई देता है, उसका वास्तविक कारण यही है। इसलिए यहां के मूल निवासी जो अब स्वयं भी शिक्षित हो चुके हैं, वे चाहते हैं कि यहां की संस्कृति एवं इतिहास का पुनर्लेखन हो, और उस लेखन का आधार अन्य प्रदेशों से लाए गए ग्रंथों की बजाय यहां की मूल संस्कृति और लोक परंपरा हो।

सुशील भोले
अध्यक्ष, एवं समस्त पदाधिकारी तथा सदस्य गण
आदि धर्म जागृति संस्थान
41-191, डॉ. बघेल गली,
संजय नगर (टिकरापारा) रायपुर (छ.ग.)
मोबा. नं. 098269-92811

हस्ताक्षर :
समस्त सदस्य......।

Thursday 27 December 2018

ज्ञानी और क्रांति.....

ज्ञानी व्यक्ति कथावाचक अथवा प्रवचनकार का जीवन नहीं जीता। वह तो समाज को झंझावातों से निकालने के लिए एक नये मार्ग का सृजन करता है। एक नई क्रांति को जन्म देता है।
* सुशील भोले *

आदि धर्म जागृति संस्थान संग जुड़व.....

"'आदि धर्म जागृति संस्थान" संग जुड़व.....
छत्तीसगढ़ के मूल आध्यात्मिक संस्कृति, उपासना अउ जीवन पद्धति संग जम्मो किसम के चिन्हारी के बढ़वार अउ पुनर्स्थापना खातिर मैदानी कारज म भीड़े "आदि धर्म जागृति संस्थान" संग जुड़ के अपन पुरख मन के संस्कार अउ संस्कृति ल जगजग ले उजराय अउ चारोंखुंट बगराय के बुता म हमर संग खांध म खांध जोर के कारज करव।
जय आदि धर्म....जय मूल धर्म...
-सुशील भोले
अध्यक्ष, आदि धर्म जागृति संस्थान
54/191, कस्टम कालोनी के सामने
डाॅ. बघेल गली, संजय नगर
(टिकरापारा) रायपुर (छत्तीसगढ)
मो. 9826992811

Wednesday 26 December 2018

संदर्भ: मानव जीवन का उत्पत्ति स्थल: नर-मादा की घाटी

संदर्भ : मानव जीवन का उत्पत्ति स्थल : नर -मादा की घाटी....
अलग-अलग धर्मों और उनके ग्रंथों में सृष्टिक्रम की बातें और अवधारणा अलग-अलग दिखाई देती है। मानव जीवन की उत्पत्ति और उसके विकास क्रम को भी अलग-अलग तरीके से दर्शाया गया है। इन सबके बीच अगर हम कहें कि मानव जीवन की शुरूआत छत्तीसगढ़ से हुई है, तो आपको कैसा लगेगा? जी हाँ!  यहाँ के मूल निवासी वर्ग के विद्वानों का ऐसा मत है। अमरकंटक की पहाड़ी को ये नर-मादा अर्थात् मानवी जीवन के उत्पत्ति स्थल के रूप में चिन्हित करते हैं।

यह सर्वविदित तथ्य है कि छत्तीसगढ़ के इतिहास और संस्कृति के लेखन में अलग-अलग प्रदेशों से आए लेखकों ने बहुत गड़बड़ किया है। ये लोग अपने साथ वहां से लाए ग्रंथों और संदर्भों के मानक पर छत्तीसगढ़ को परिभाषित करने का प्रयास किया है। दुर्भाग्य यह है,कि इसी वर्ग के लोग आज यहां शासन-प्रशासन के प्रमुख पदों पर आसीन होते रहे हैं, और अपने मनगढ़ंत लेखन को ही सही साबित करने के लिए हर स्तर पर अमादा  रहे हैं। इसीलिए वर्तमान में उनके द्वारा उपलब्ध लेखन से हम केवल  इतना ही जान पाए हैं कि यहाँ की ऐतिहासिक प्राचीनता मात्र 5 हजार साल पुरानी है। जबकि यहाँ के मूल निवासी वर्ग के लेखकों के साहित्य से परिचित हों तो आपको ज्ञात होगा कि मानवीय जीवन का उत्पत्ति स्थल है छत्तीसगढ़।

इस संदर्भ में गोंडी गुरु और प्रसिद्ध विद्वान ठाकुर कोमल सिंह मरई द्वारा 'गोंडवाना दर्शन" में धारावाहिक लिखे गए लेख - 'नर-मादा की घाटी" पठनीय है। इस आलेख-श्रृंखला में न केवल छत्तीसगढ़ (गोंडवाना क्षेत्र) की उत्पत्ति और इतिहास का विद्वतापूर्ण वर्णन है, अपितु यह भी बताया गया है कि यहाँ के सतपुड़ा पर्वत श्रृंखला पर स्थित 'अमरकंटक" मानव जीवन का उत्पत्ति स्थल है। यह बात अलग है कि आज मध्यप्रदेश अमरकंटक पर अवैध कब्जा कर बैठा है, लेकिन है वह प्राचीन छत्तीसगढ़ का ही हिस्सा। इसे यहाँ के मूल निवासी वर्ग के विद्वान 'अमरकोट या अमरूकूट" कहते हैं, और नर्मदा नदी के उत्पत्ति स्थल को 'नर-मादा" की घाटी के रूप में वर्णित किया जाता है। नर-मादा के मेल से ही नर्मदा शब्द का निर्माण हुआ है।

कोमल सिंह जी से मेरा परिचय आकाशवाणी रायपुर में कार्यरत भाई रामजी ध्रुव के माध्यम से हुआ। उनसे घनिष्ठता बढ़ी, उनके साहित्य और यहाँ के मूल निवासियों के दृष्टिकोण से परिचित हुआ था, उसके पश्चात वे हमारी संस्था '"आदि धर्म जागृति संस्थान" के साथ जुड़ गये। उनका कहना है कि नर्मदा वास्तव में नर-मादा अर्थात मानवीय जीवन का उत्पत्ति स्थल है। सृष्टिकाल में  यहीं से मानवीय जीवन की शुरूआत हुई है। आज हम जिस जटाधारी शंकर को आदि देव के नाम पर जानते हैं, उनका भी उत्पत्ति स्थल यही नर-मादा की घाटी है। बाद में वे कैलाश पर्वत चले गये और वहीं के वासी होकर रह गये। मैंने इसकी पुष्टि के लिए अपने आध्यात्मिक ज्ञान स्रोत से जानना चाहा, तो मुझे हाँ के रूप में पुष्टि की गई। यहां यह उल्लेखनीय है, कि अब भू-गर्भ शास्त्रियों (वे वैज्ञानिक जो पृथ्वी की उत्पत्ति और विकास को लेकर शोध कार्य कर रहे ह़ैं, उन लोगों ने भी इस बात को स्वुकार कर लिया है, कि मैकाल पर्वत श्रृंखला, जिसे हम अमरकंटक की पर्वत श्रृंखला के रूप में जानते हैं, इसी की उत्पत्ति सबसे पहले हुई है, इसी लिए इस स्थल को पृथ्वी का "नाभि स्थल" भी माना जाता है।

मित्रों, जब भी मैं यहाँ की संस्कृति की बात करता हूं, तो सृष्टिकाल की संस्कृति की बात करता हूं, और हमेशा यह प्रश्न करता हूं कि जिस छत्तीसगढ़ में आज भी  सृष्टिकाल की संस्कृति जीवित है, उसका इतिहास मात्र पाँच हजार साल पुराना कैसे हो सकता है?  छत्तीसगढ़ के वैभव को, इतिहास और प्राचीनता को जानना है, समझना है तो मूल निवासयों के दृष्टिकोण से, उनके साहित्य से भी परिचित होना जरूरी है। साथ ही यह भी जरूरी है कि उनमें से विश्वसनीय और तर्क संगत संदर्भों को ही स्वीकार किया जाए।

सुशील भोले
संजय नगर, रायपुर (छ.ग.)
मो. 9826992811,

Wednesday 19 December 2018

अब तो बंद हो फर्जी कुंभ का पाखण्ड......

अब तो बंद हो फर्जी कुंभ का पाखण्ड.....
छत्तीसगढ की  मूल संस्कृति मेला-मड़ई की संस्कृति है। यहां के लोक पर्व मातर के दिन मड़र्ई जागरण के साथ ही यहां मड़ई-मेला की शुरूआत हो जाती है, जो महाशिव रात्रि तक चलती है।

मड़ई का आयोजन जहां छोटे गांव-कस्बे या गांवों में भरने वाले बाजार-स्थलों पर आयोजित कर लिए जाते हैं, वहीं मेला का आयोजन किसी पवित्र नदी अथवा सिद्ध शिव स्थलों पर आयोजित होता चला आ रहा है। इसी कड़ी में पवित्र त्रिवेणी संगम राजिम का प्रसिद्ध मेला भी कुलेश्वर महादेव के नाम पर आयोजित होता था।
बचपन में हम लोग आकाशवाणी के माध्यम से एक गीत सुनते थे- "चलना संगी राजिम के मेला जाबो, कुलेसर महादेव के दरस कर आबो।" लेकिन अभी कुछ वर्षों से यह मेला काल्पनिक कुंभ या कहें फर्जी कुंभ का नाम धारण कर लिया है, और इसे "कुलेश्वर महादेव" के स्थान पर "राजीव लोचन" के नाम पर भरने वाला कुंभ के रूप में प्रचारित किया  जा रहा है।

जहां तक इस मेला को भव्यता प्रदान करने की बात है, तो इसे हर स्तर पर स्वागत किया जाएगा। किन्तु इसका नाम और कारण को परिवर्तित करना किसी भी सूरत में स्वीकार नहीं किया जा सकता। छत्तीसगढं बूढादेव के रूप में शिव संस्कृति का उपासक रहा है, तब भला किसी अन्य देव के नाम पर भरने वाला कुंभ या मेला के रूप में कैसे इसे स्वीकार किया जा सकता है?
कितने आश्चर्य की बात है, कि यहां के तथाकथित बुद्धिजीवी या जनप्रतिनिधि  भी इस पर कभी कोई टिका-टिप्पणी करते नहीं देखे गए। अपितु वहां आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में भागीदारी पाने के लिए लुलुवाते हुए या अपने पत्र-पत्रिका के लिए विज्ञापन उगाही करने के अलावा और कुछ भी करते नहीं पाए गये।

सबसे आश्चर्य की बात तो यह है, कि यहां के तथाकथित संस्कृति और इतिहास के मर्मज्ञों को भी यह समझ में नहीं आया कि महाशिव रात्रि के अवसर पर भरने वाला मेला महादेव के नाम पर भरा जाना चाहिए या किसी अन्य के नाम पर?

मित्रों, जिस समाज के बुद्धिजीवी और मुखिया दलाल हो जाते हैं, उस समाज को गुलामी भोगने से कोई नहीं बचा सकता। आज छत्तीसगढ अपनी ही जमीन पर अपनी अस्मिता की स्वतंत्र पहचान के लिए तड़प रहा है, तो वह ऐसे ही दलालों के कारण है। शायद यह इस देश का एकमात्र राज्य है, जहां मूल निवासियों की भाषा, संस्कृति और लोग हासिए पर जी रहे हैं और बाहर से आकर राष्ट्रीयता का ढोंग करने वाले लोग तमाम महत्वपूर्ण ओहदे पर काबिज हो गये हैं।

ज्ञात रहे, इस देश में जिन चार स्थानों पर वास्तविक कुंभ आयोजित होते हैं, वे भी शिव स्थलों के नाम पर जाने और पहचाने हैं, तब यह काल्पनिक कुंभ क्यों नहीं कुलेश्वर महादेव के नाम पर पहचाना जाना चाहिए?
अब नई सरकार का युग आ गया है, तब विश्वास हो रहा है, कि पूर्ववर्ती सरकार के 15 वर्षों में यहां की संस्कृति, इतिहास और गौरव के साथ खिलवाड़ कर जिस तरह उसे भ्रमित कर समाप्त करने का खेल खेला गया, अब उस पर रोक लगेगा। फर्जी कुंभ का पाखण्ड बंद होगा। यहां की संस्कृति अपने मूल रूप में संरक्षित और विकसित होगी।।

-सुशील भोले
आदि धर्म जागृति संस्थान
संजय नगर, रायपुर
मो .नं. 9826992811